मंगलवार, 14 सितंबर 2010

क्या की जे

किसी को याद न आए तो भला क्या की जे,
किसी की याद सताए तो भला क्या की जे।।
वो बेवफा है बेरुखा है दगाबाज है बहुत,
पर ये दिल उसको ही चाहे तो भला क्या की जे।।
मित्रों बिस्तर की सलवटों को प्रयोग मित्रों ने अब तक बेचैनी को जाहिर करने के लिए किया है, यहां नया उपयोग देखें....
अर्ज किया है.....
अजीब रात है करवटों में कटी जाती है,
सलवटें बिस्तर पर न आए तो भला क्या की जे।
देश के हालात बिगड़ रहे हैं या सुधर रहे हैं यह तो दावे के साथ हमारे नीति निर्धारक भी नहीं कर सकते...
देखें
ढकने के लिए लोग को कपड़ा नहीं नसीब।
विकास दर आकाश में जाए तो भला क्या की जे।
और अंत में
सौ-सौ की दिहाड़ी में सौ दिनों का रोजगार।
सांसद अस्सी हजार पाएं तो भला क्या की जे।।

रविवार, 12 सितंबर 2010

प्रतिशोध

राजनीतिकारों पर और देश के गद्दारों
परसाठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ।
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ ।
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन,
इसीलिये लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फ़र्ख न पड़ेगा कोई फिर भी,
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ॥

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

नानी एक कहानी कह

नानी एक कहानी कह
सबकी है जब अपनी रातें
नींद नहीं क्यों आनी कह...

कैसी मस्जिद कैसा मंदर
सबके लिए है एक समंदर

फिर क्यों झांसे में आ जाती
अब झांसी की रानी कह...

बोझ जमाने भर का लादे
चश्मे चढ़ते आखों पर
क्यों पन्नों में ही खो गई
बच्चों की शैतानी कह...

फूलों सी रंगत चहेरों की
कितने बरस हो गए देखी थी
फीके चेहरे, रूखी बातें
क्यों बेरंग जवानी कह...

क्यों रोते हैं बच्चे जग कर
रात-रात को नींदों से
तेरी कहानी से गायब हैं
क्यों राजा और रानी कह...

शनिवार, 4 सितंबर 2010

अपने घर के आंगन में

कुछ अपने ठहरा ले भइया अपने घर के आंगन में,
जैसे सांप छिपा ले भइया अपने घर के आंगन में।


रोज-रोज की पत्थरबाजी से अब तू घबराता है,
पाकिस्तान बसाले भइया अपने घर के आंगन में।


कंधा देने को मुर्दे को मिलते हैं अब लोग कहां,
खुद की चिता सजा ले भइया अपने घर के आंगन में।


खेल-खेल में नोट छापना कलमाड़ी से सीख जरा,
एक आयोजन करवा ले भइया अपने घर के आंगन में।


गुलेल से निकले एक कंकड ने आंख फोड दी बच्चे की,
और आम उगाले भइया अपने घर के आंगन में।


तूने मां-बाप को पीटा तेरा बेटा देख रहा,
इक कुटिया बनवाले भइया अपने घर के आंगन में।

रविवार, 29 अगस्त 2010

आओ न कुछ बात करें


कु अटक रहा था मन में, खटक रहा था जैसा भी आया आपको सौंप रहा हूं.... देखें तो जरा

किसका घूंसा - किसकी लात, आओ न कुछ बात करें...
होती रहती है बरसात, आओ न कुछ बात करें।

अगर मामला और भी है तो वो भी बन ही जाएगा,
छोड़ो भी भी ये जज्बात, आओ न कुछ बात करें।

नदी किनारे शहर बसाना यूं भी मुश्किल होता है,
गांव के देखे हैं हालात, आओ न कुछ बात करें।

इक इक- दो दो घूट गटक कर सैर करेंगे दुनिया की,
पैसे देंगे कुछ दिन बाद, आओ न कुछ बात करें।

बूंद-बूंद ये खून बहा कर क्यों प्यासे रह जाते हो,
बांटे जीवन की सौगात, आओ न कुछ बात करें।

तुम गैरों के हो गए तो क्या! प्यार हमेशा रहता है,
कौन रहा जीवन भर साथ, आओ न कुछ बात करें।

नींदों को पलकों पर रख कर छत पर लेटे रहते थे,
फिर आई वैसी ही रात, आओ न कुछ बात करें।

कमर तोड़ती है सरकार चाहे जिसको कुर्सी दो,
कैसा फूल और किसका हाथ, आओ न कुछ बात करे।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

इधर भी प्रोब्लम है भाई

उड़नतश्तरी का पर घूम कर आया तो पता चला कि उन्हें अपनी रचना के लिए एक अदद शीर्षक की जरूरत है। पढ़ कर अजीब लगा कि समीर जैसी शख्सियत को एक अदना सा शीर्षक नहीं मिल रहा है क्या विडंबना है कहीं जहां खूबसूरत बदन है तो वहां घाघरा नहीं और जहां घाघरा है वहां बदन ही नहीं। जो भी हो अपनी पे आते हैं। मेरा मामला समीर लाल जी से कुछ अलग है। उनके पास शीर्षक नहीं है तो मेरे पास रचना ही नहीं है। अब आप सलाह देंगे कि रचना और शीर्षक का आदान प्रदान कर लो। पर मित्रों यह भी संभव नहीं है। उनकी रचना अगर मेरे शीर्षक से मैच न कर पाई तो मेरी तो भद ही पिट जाएगी न इस संभ्रात जगत में (वैसे यह भी एक फंडा है कि अपनी चीज का दाम हमेशा दूसरे से ऊंचा ) । वैसे बता दूं कि यह शीर्षक कई साल से मेरे जेहन को दुख पहुंचा रहा है। दुख क्या दे रहा है कचोट रहा है। मुझसे लड़ रहा है। मुझे ताने दे रहा है। रातों को सोने नहीं देता और दिन में कुछ काम करने नहीं देता। मजेदार बात यह है कि शीर्षक मुझसे बातें करता है कि रचनाएं कैसी हों। कम्बख्त को बीस तीस रचनाएं सुना चुका हूं पर उसे पसंद ही नहीं आतीं। इसमें हीरोइन सैक्सी नहीं है। तो उसमें हीरो आम सा नहीं लगता। मन करता है कि उसे कह दूं कि तू आम खा पेड़ मत गिन। पर क्या करुं अपने जने को कोई कुछ कह भी नहीं सकता। डरता हूं आत्महत्या कर ले तो मै तो शीर्षक हंता कहलाने लगूंगा न। आपकों क्या पता कि शीर्षक कितनी मुश्किल से मिलता है... (समीर जी से पूछो जो आपसे पूछ रहे हैं।) शीर्षक मेरे पास है पर रचना नहीं इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है मित्रों। मेरे शीर्षक के लिए कोई कहानी हो तो आप मुझे जरूर लिखना... पर स्मरण रहे आपकी कहानी मेरे शीषर्क को पसंद आनी आवश्यक है। ऐसी कहानियां जिन्हें मेरा शीर्षक स्वीकार नही करेगा उन्हें वापस भेजना मेरे लिए दुष्कर होगा...इसलिए लिखी और भूल जाओ समझो।
कहानी लिखने से पहले कुछ शेरों पर नजर दौड़ा लें और मजा लें
कि जिनमें डूब गए थे हम वही मंझधार
गया तूफान तो देखा वो किनारे निकले।।
जिनपे उम्मीद थी ले जाएगें नदी पार हमें,
मगर जब निकले तो वे मेरे सहारे निकले।।
जिनके इश्क के चर्चे सुने थे घर-घर में,
मिले हमसे तो या खुदा वो कुंवारे निकले।।
हमें तो खौफ था गैरों पे डर झूठा निकला,
कि हमें मारा जिन्होंने वो हमारे निकले।।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

तुम आओगे न... गिर्दा



65 साल की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती और तुम इतनी ही लिखा लाए। पर जितना भी जिए शानदार जिए। तुम गिर्दा नहीं एक कहानी थे... एक अनवरत कहानी जिसका कोई अंत नहीं... बस आरंभ था। तुम्हे क्या लगता है कि तुमने जिंदगी के इन 65 सालों में अपनी जिंदगी जी। नहीं तुम एक युग जी गए... गिर्दा....। वो युग जो अब पहाड़ पर फिर लौट कर नहीं आएगा। क्या आदमी थे रे तुम... ठेठ पहाड़ी जीवन... वहीं ठसक ...वहीं कसक ... डटे रहने की रणभूमि में.... पहाड़ की तरह। मां पिता ने गिरीश नाम दिया... तुम्हे शायद जंचा नहीं सो गिर्दा हो गए। पूरी दुनिया के लिए ...गिर्दा... यानी गिरीश दा...। दादा यानी बड़ा भाई जो छोटों को हर गलती पर प्यार भरी डांट पिलाता है। पुचकारता है और फिर गलती न करने की नसीहत देता है।
सारा पानी चूस रहे हो , नदी संमदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर कन्कड़ पत्थर कूट रहे हो।।
महल चौबारे बह जाएगें, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूँद बूंद को तरसोगे जब
बोल व्यापारी तब क्या होगा।नगद उधारी तब क्या होगा।।
गिर्दा.... नाम के अलावा तुमने और क्या लिया दुनिया से और दिया क्या- क्या... शायद तुमने इस पर गौर ही नहीं किया। तुम तो पहाड़ थे। तुम्हें क्या पता हीरे क्या हैं और जवाहरात क्या। तुम तो बस उगले जा रहे थे। बेजान शब्दों को जान देते हुए ...शब्द ...शब्द...अहा हीरे ...जवाहरात।तुम्हारा जाना एक चोट दे गया उन एक करोड़ उत्तराखण्डियों को जो तुम्हारे गीत गा-गा कर अलग राज्य के नागरिक बन गए। यह अजीब जज्बा तुमने ही तो भरा था उनके भीतर गाते गाते लडऩे का ... अजीब है न... पर यह किया तुमने ही...।मेरे जैसे कितने ही हैं जो तुम्हें साक्षात न देख सके लेकिन तुम्हें तुम्हारे गीतों, जन गीतों से जानते हैं। उन सबमें तुम जिंदा हो गिर्दा.... हमें लगता है कि तुम मिटे नहीं तुम चले गए हो कुछ समय के लिए और फिर लौटोगे ... गाते हुए ...
चलो रे नदी तट पार चलो रे...बहता पानी, चलता जीवन, थमा के हाहाकार चलो रे...
तुम गए नहीं गिर्दा यहीं ...कहीं हो... बस ओझल से हो... जब भी परेशान होंगे... तुम्हारे जन गीतों से ही पुकारेगे तुम्हें ... तुम आओगे न...क्योकि अभी लडऩी हैं हमने लंबी लड़ाई...तुम दोगे न साथ पहले की तरह... इस बार भी...

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

एक और राजधानी

देहरादून को धोखे से उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी बनाने की बात अभी लोग भूले भी नहीं हैं की एक और राजनैतिक साजिश सामने आ गई। देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाने के बाद यहीं जड़ें जमा कर बैठे हमारे माननीयों और नौकरशाहों ने अब एफिलिएटिंग यूनिवर्सिटी को देहरादून में ‘अस्थाई’ तौर पर जमाने का बीड़ा उठाया है। इसे लेकर गत मंगलवार को मंत्रीमंडल ने प्रस्ताव भी पारित कर हालाँकि नव प्रस्तावित को टिहरी के बादशाही थौल में खोले जाने का प्रस्ताव पारित किया गया, लेकिन वहां जिस स्थान पर इस यूनिवर्सिटी को खोले जाने की राय बनी है, वो कैम्पस केंद्रीय विश्व विद्यालय की संपत्ति है और क्या गारंटी है कि केंद्र सरकार अपनी संपत्ति को प्रदेश सरकार को दे ही दे। हालांकी मीडिया ने यह आशंका मंत्रीमंडल की बैठक की जानकारी दे रहे मुख्य सचिव एनएस नपल्चयाल के सामने भी उठाई। उन्होंने बताया की इस मामले में केंद्र सरकार को पत्र भेजा जाएगा।साफ है कि सरकार ने बादशाही थौल में जगह मिलने की उम्मीद के साथ ही कालेजों को संबदधता प्रदान करने वाले इस विश्व विद्यालय की स्थापना का निर्णय ले लिया। पहले ही सरकार के हाथों राजधानी के मामले में ठगे गए लोगों के लिए यह मामला ‘दूसरी राजधानी’ से कम नहीं है। कोई नई बात नहीं होगी कि बादशाही थौल के लोगों को अपना हक लेने के लिए बाद में आंदोलन का सहारा लेना पड़े।प्रदेश के 193 स्वपोषित कालेजों को संबद्धता प्रदान करने के लिए बनाए गए इस विश्व विद्यालय की अहमियत सरकार भी जानती है और अफसरशाही भी। जब तक बादशाही थौल में स्थान नहीं मिल जाता तब तक विवि को दून में ही चलाया जाए। मजेदार बात यह है की दून में भी अभी विवि के लिए कोई भवन चिन्हित नहीं किया गया है। विश्व विद्यालय के कुलपति से लेकर रजिस्ट्रार समेत कुल 19 पदों का सृजन किया जा चुका है। दरअसल बादशाही थौल में हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्व विद्यालय के भवन पर सरकार की नजरें टिकी हैं । चूँकि यह भवन केंद्र सरकार की संपत्ति है इसलिए यह केंद्र पर निर्भर है कि वह अपनी इस संपत्ति को प्रदेश सरकार को सौंपती है या नहीं। सूत्रों का कहना है कि केंद्र आसानी से बादशाही थौल के परिसर को प्रदेश को नहीं सौंपने वाला। हालांकि प्रदेश सरकार ने इस प्रस्ताव के साथ एफिलिएटिंग विश्व विद्यालय के स्थापना की गेंद केंद्र के पाले में फेंक दी है। गेंद चाहे किसी के पाले में जाए एक बात तो साफ है कि प्रदेश सरकार ने दून में विवि का अस्थाई परिसर बनाने का निर्णय लेकर देहरादून में एक और राजधानी की नींव डाल दी है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

गुलामी

देखो अल्ताफ दो दिन बाद 15 अगस्त है। पूरे कैंपस को साफ करवा दो। वो सामने घास कटवा देना...वहां शाम को पार्टी का इंतजाम करना है। काकटेल तो अंदर ही करवा देंगे। इस तरफ पेड़ के नीचे दिन में झंडारोहण होना है...यहां एक भी पत्ता दिखाई न पड़े। गेट पर मेहमानों के आने के लिए कालीन डलवाना.... और हां अंदर कार्यक्रम के दौरान आसपास की बस्ती सें कोई बच्चा या आदमी न आने पाए... पिछली बार अपने साथ तमाम गंदगी ले आए थे...नामाकूल...तुम्हें और आदमियों की जरूरत पड़े तो बाहर से बुला लेना...
साहब सब हो जाएगा ...आप चिंता न करें... पर साब एक बात बतानी थी पिछले साल के तीन सौ रुपए अभी तक मजदूरों को नहीं दिए हैं।
यार तुम लोग एक एक पैसे के लिए मरते हो... तीन सौ रुपए एक साल से याद है तुझे... यहां इतना काम पड़ा है तू तीन सौ रुपल्ली के लिए रो रहा है... इस बार दूसरे मजदूर ले कर आना... उन्हें काम धाम कुछ नहीं आता...रुपए लेने के लिए चले आते हैं...साले
ठीक है साब...पर मजदूर सौ रुपए दिहाड़ी से नीचे नहीं मानते।
सौ रुपए...यह तो मजदूरी नहीं ब्लैक मेलिंग है...उन्हें 75 रुपए के हिसाब से देना और बिल मुझे दिखा कर बनाना...बाद में हिसाब ने बिगड़ जाए
साब 75 रुपए में तो नहीं हो सकेगा...तो फिर क्या पूरा खजाना खोल दूं उनके लिए...काम ही कितना है...करना है तो करें
ठीक है साब मैं अपने बच्चों को ही काम पर लगा लूंगा...पर साब पिछले साले के तीन सौ रुपए तो मिल जाएगें न
ठीक है तू अपने बच्चों को लगाएगा तो डेढ सौ रुपए ले जा...पिछला हिसाब बराबर।ठीक है साब...

बुधवार, 11 अगस्त 2010

कोख

बाढ़ का पानी उतरा तो सरकारी बाबू अपने ऑफिसों से निकल कर मुआवजा बांटने के लिए गांव में ही आ गए। बाढ़ के दौरान ही जो लोग शहर पहुंच सके थे उन्हें ऑफिसों में ही खुले दिल से मुआवजा बांट दिया गया था। बाबू रजिस्टर खोल कर नाम पुकारता और पीड़ित आगे बढ़कर अपना मुआवजा ले जाता। मुआवजा लेने वालों की भीड़ लगी थी। सब अपने अपने नाम की इंतजारी में थे। जैसे जैसे काम निपटने लगा, भीड़ के बीच खड़ी बुढ़िया की धडकनें बढ़ने लगीं। कई दिनों से कुछ न खाने के कारण पीला पला उसका चेहरा बाबू से बात करने के लिए तमतमाने लगा था। वह बड़ी उम्मीद से अपने नाम की इंतजारी कर रही थी। सब निपट गए... लोग अपने अपने घरों को लौट गए। अकेले खड़ी बुढ़िया को देख बाबू ने पूछा... ऐ क्या नाम है।सरबतिया...

बाबू ने रजिस्टर के पन्ने पलटते हुए पूछा- पति का नाम...

बुढ़िया ने शरमाते हुए बताया- लछमन...

बाबू ने पूरा रजिस्टर पलट दिया, लेकिन इस तरह के नाम का कोई पीडित उसे नहीं मिला, फिर बाबू ने पिछले पन्ने भी खंगाल दिए। एक जगह पर पेन लगाकर वोह रुक गया -अरे तेरे मरे का मुआवजा तो तेरा बेटा शहर आकर ही ले जा चुका है...पूरे पांच हजार रुपए मिले उसें... जा भाग यहां से... तू तो कागजों में मर चुकी है...बुढ़िया बाबू की बातों को हैरानी से सुन रही थी। उसकी जुबान तालू से चिपक गई, बिना कुछ बोले ही वह चुपचाप वापस लौट गई...शायद अपनी कोख को गाली दे रही थी...

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

काट डालो सारे बांस

आईपीएल वाले मोदी तो शहीद हो गए, अब बारी है कॉमनवैल्थ वाले कलमाड़ी की। हमारी सरकार ने इन घटनाओं से सराहनीय सबक लिया है। उसने सतर्कता के साथ घोषणा कर दी कि वह ऐसे किसी भी खेल के आयोजन को अपने सिर नहीं लेगी जिसमें देश के इतने काबिल लोगों की बलि चढ़ जाए। आखिर मोदी और कलमाड़ी ने देश को बहुत कुछ दिया और उनका ही सार्वजनिक बहिष्कार वह भी दो कौड़ी के इन खेलों के चक्कर में यह तो बर्दाश्त करने लायक था ही नहीं। सरकार ने सापफ कर दिया कि भारत एशियाई खेलों के लिए होने वाली बोली में हिस्सेदारी ही नहीं करेगा। भाई साब! अपने देश की प्रतिभाओं के चेहरों पर स्वयं ही कालिख पोतने से तो अच्छा है कि इस प्रकार के आयोजनों को भारत में लाया ही नहीं जाए। पिफर देखते हैं कि हम पर कौन अंगुली उठाता है। अंगुली तोड़ न डालेंगे उसकी...। अब हमारा सर्वाधिकार होगा कि हम जब चाहे दूसरों का बना बनाया खेल बिगाड़ दें। वैसे भी हमारे पास ऐसे मीडिया तंत्रा तो है ही तिल का ताड़ बना दे। चौबीस घंटे तक समाचारों के नाम पर किसी की भी मुंडी मरोड़ने वाले हमारे चैनल दूसरों की कमियों को दिखाएगें तो उन्हें काम मिलेगा और हम दूसरों की छीछालेदर पर बल्लियों उछल रहे होंगे। सरकार एशियाओं खेलों की बोली में हिस्सा न लेने का ऐसा दांव खेलेगी यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। सचमुच धन्य हैं हमारी सरकार, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
तपन
08954024571

रविवार, 18 जुलाई 2010

एक दिन शायद

एक दिन
जब सड़ी हवा में सांस लेने से
आदमी डरेगा नहीं।
एक दिन
जब पेट भरने के लिए आदमी
कुछ करेगा नहीं।।
एक दिन
जब रोज रोज की दौड भाग से
परेशान शख्श जल्दी नहीं जागेगा।
एक दिन
जब छोटा बड़ा काम करके भी
बाबू रिश्वत नहीं मांगेगा।।
एक दिन
जब फूल दुर्गन्ध के लिए नहीं
महक के लिए विख्यात होंगे।
एक दिन
जब अंजाने नाम भी प्रेमचंद और
रविन्द्र नाथ से प्रख्यात होंगे।।
एक दिन
जब धरती पत्थर नहीं सोना उगाएगी।
एक दिन
जब विरहनी संयोग के गीत गायेगी।।
एक दिन
जब मशीन और आदमी
की प्रतिद्वंदिता नहीं होगी।
एक दिन
जब नई पीढ़ी में विचारों की
स्वच्छंदता नहीं होगी।।
एक दिन
जब बादल बिजली की जगह
सोना बरसाएंगे।।
एक दिन
जब हम-तुम तालाब में नंगे नहाएगें।।
एक दिन
जब कबूतरों को बाज
नहीं डराएगा।
एक दिन
जब राजनेता सिर्फ रोटियां खाएगा।।
एक दिन
जब अफसरों को कुर्सियां
नहीं होगीं।
एक दिन
जब दफ्तरों में तख्तियां नहीं होगी।।
एक दिन
जब रात
दिन से नहीं डरेगी।
एक दिन जब जिन्दगी के
फैसले खाप नहीं करेगी।।
एक दिन
जब आस्तीन के सापों का
डर नहीं होगा।।
एक दिन जब न्यायालय में
डाकू का घर नहीं होगा।।
एक दिन
जब परधानमंत्री आवास में गेट
नहीं होगें।
एक दिन
जब मजदूरों पर धौंस जमाते
घन्ना सेठ नही होंगे।।
एक दिन
जब अहसानों को हम उम्र
भर नहीं भूलेंगें।
एक दिन
जब फेल हुए बच्चे फांसी
पर नहीं झूलेंगे
एक दिन
जब सबके बच्चे घी और रोटी
खाएगें।
एक दिन
जब हम कसाब को फांसी
पर लटकाएगें।।
एक दिन
जब पेडों से आंसू
नहीं झरेंगे।
एक दिन
जब ग्लेशियर नहीं गलेंगें।।
एक दिन
जब नेता अपने गांव
लौट कर आएगा।
एक दिन
जब वोटर बिन दारू
के वोट डालने जाएगा।।
एक दिन
जब न्याय पैसे से
न तौला जाएगा।
एक दिन
जब मजदूर भरपेट
रोटियां खाएगा।।
शायद उस दिन
हम आदमी से
इंसान बन जाएंगे।
शायद उस दिन
हम अपने संस्कार
कर्मों में दिखलायेंगे।।
शायद उस दिन देश में
राम राज्य आ जाए।
शायद उस दिन
कोई देवता इस देश को चलाए।।
शायद.....

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

धौनी की शादी में अब्दुल्ला दीवाने

लो जी... कुवारों टोली से एक नग और कम हो गया और हमारी टोली में जमा हो गया। शादी शुदा मस्ती में झूम रहे हैं, सो में भी खुश हूं... लेकिन अंदर से मैं बहुत दुखी हूं ...दो रातों से सो नहीं पाया दरअसल मुझे दुख मिश्रित गुस्सा है। धौनी की सगाई और शादी की लाइव कवरेज न देख पाने का। हांलाकि मीडिया से जुड़े भाई-बहनों ने तो हर संभव प्रयास किए पृथ्वी लोक की इस चर्चित शादी को दिखाने के... पर करते क्या उन्हें तो गेट से अंदर फटकने भी नहीं दिया गया। अन्दर मेहमान चिकन टिक्का गटक रहे थे और बाहर गेट पर खडे हमारे बंधुओं से मुहं का थूक भी नहीं थूका जा रहा था। वैसे धौनी ने किया तो अन्याय आ जाने देते उन्हें भी अन्दर, क्या फर्ख पडना था। हर फेरे के बाद दर्जनों माइक उनके मुंह के सामने होते और भाई पूछते... कैसा महसूस कर रहे हैं... बस... अब देखिए न फायदा तो धौनी को ही होना था दुनिया भर में शादी का सीधा प्रसारण मुफ्त में ही हो जाता, पर नहीं- धौनी ठहरे अडियल टाईप । पत्रकारों की छाया भी नहीं फटकने दी अन्दर। थके हारे भाई-बहनों की जान में जान तो तब आई जब दूल्हे के लिए सजी घोड़ी गेट पर पहुची। भाईयों ने घोडी वाले को थाम लिया... उसे मोबाइल देने लगे-बोले एक... दो फोटो ले आना। उन्हे तो घोड़ी वाले में ही भगवान दिखने लगा था। एक बहन ने तो उसका इन्टरव्यू ही कर लिया साहब। प्रसारण दूसरे चैनल के बॉस ने देखा, वह तो हत्थे से ही उखड़ गया। अपने पत्रकार की ठीकठाक झाड़-फूंक कर दी। बारात के बाद तो घोड़ी वाले की किस्मत खुलनी ही थी। गेट पर भाई-बहनों ने उसका अभूतपूर्व स्वागत किया। दर्जनों माइक उसके मुंह पर ठोक दिए गए... वह गलिया भी शानदार रहा था। एक पत्रकार पीछे रह गया तो मौका देख उसने माइक घोड़ी के मुंह पर ही लगा दिया... कैमरे में घोडी की क्लोज शॉट लेना शुरू कर दिया... पर घोड़ी कम्बखत बोली हीं नही वर्ना इतिहास रच जाता। हद है भाई... बोल घोडी वाला रहा है और कैमरे सजी धजी घोड़ी पर लाइन मार रहे थे । तब तक वरमाला लिए दूसरे साहब आ गए। दुकान से ही उनका पीछा किया जा रहा था सो गेट पर ध्र लिए गए... फूल कहां से आए... कौन-कौन से फूल है... कितने दिन पहले तोडे़ थे... कौन से ट्यूबवैल का पानी देते हो इन फूलों को... कौन सी माला किसे दोगे। इतने में एक की नजर गजरे पर पड गयी... चमेली का है क्या? दूसरे ने पूछा- फूलों की सुगंध् असली है या इत्र छिड़क रखा है... कितनी पंखुडियां हैं एक फूल में... कुल कितने फूल है...। बस हो गई एक्यक्लूसिव आइटम तैयार ...इतने सौ फूलों से बना गजरा, इतने हजार फूलों की वरमाला ... ब्रेकिंग न्यूज की पटटी के साथ टी वी स्क्रीन भी खुशबू बिखेरने लगा था। डीजे वाला अन्दर गया तो उससे अलग सवाल... कौन-कौन से गाने बजाओगे-बोला अगर आपने छोड़ा तो ही बजा सकूंगा वर्ना होटल वाले मेरा ही बैण्ड बजा देंगें। रिसार्ट के अन्दर की ओर जाने वाले हर व्यक्ति से पहले बात करने के लिए दर्जन माइकधरी दौड़ पडते कौन हो... अन्दर क्यों जा रहे हो... क्या-क्या लाए हो। मेहमानों के लिए बर्फ लाने वाले को भाई - बहनों ने तब छोड़ा जब उसकी बर्फ पूरी तरह से पिघल गई। शराब तो अन्दर तक पहुंच ही नहीं सकी... कैसे पहुंचती मीडिया की नजर थी, बड़ी खबर बनती सो शराब बार बनाए गए पर खाली ही रहे। अगले दिन मैनेजर को डांट जरूर पड़ी होगी। एक गाडी गेट पर खडी हुई एक साहब नीचे उतरे तो भाई बहनों ने घेर लिए- कौन है आप? पहला सवाल इतने कैमरे माइक देखकर वे हकलाने लगे मुंह से धे... ही निकला था कि पचासों सवाल हवा में उछल पड़े... कहां से आए है... किस की ओर से है... धेनी को कब से जानते हैं... शादी की खबर कैसे मिली... कार्ड आया था या फोन पर सूचना मिली थी.... कैसा कार्ड था...फोन किसने किया था...। टीवी स्टूडियो में उफंघते एनाउन्सरों ने भी मोर्चा संभाल लिया... देखिये एक मेहमान से मुलाकात। वहां से भी संवावदाता की मदद को सवालों की बौछार शुरू हो गई। भीड़ में फंसे सज्जन को गुस्सा आ गया। बोले- पूरी बात तो सुनो ...धोए हुए कपडे होटल में देने जा रहा हूं... सबकी बोलती बंद।
कुछ चैनलों के स्टूडियो से अलग से मेहनत हो रही थी। रविवार की रात को फेरों के मुहर्त निकलवा लिए गए पंडितों से... उसी हिसाब से बाकी रस्में तय कर दी गईं। साढे 11 बजे हुए फेरे चैनलों ने साढे सात बजे ही निपटा दिए।यही नहीं पंडितों को बिठा दिया गया कैसे मुहर्त में हो रही है शादी... कितनी सफल होगी... बच्चों का योग... जोड़ी खुश रहेगी... बन पाएगी दोनों की.... और तलाक कब तक...। सभी सवालों के जबाब हाजिर।भाई-बहन लगातार तीन दिन तक खाना-पीना सब भूल गए। एक भाई लघुशंका को गए, तब तक विवाह की छतरी वाला आ गया। जल्दी बाजी में भाई की पेंट ही गीली हो गई। किन्नरों को पता चला वे भी आ गए नाच गाना शुरु... लाइव टेलीकास्ट मुफ्त में। जो भी हो इस शादी ने घोडी वाले, डीजे वाले, माला वाले तीनों के रेट बढ़ा दिए। वे छोटी-मोटी शादियों में तो जाएगें ही नहीं । आखिरी सुबह तक भाई लोग डटे रहे होटल के गेट पर । जंगल में झिंगुर भी बोलता तो झपकी लेती आंख खुल जाती भाई-बहन माइक टटोलने लगते।धौनी-साक्षी दिल्ली रवाना हुए तो हमारे भाई बंधुओं ने ढाबे पर चाय पी और अपने घरों की राह पकड़ी। बीबी ने फ्रिज में रखा दो दिन पुराना खाना गर्म करके खाने की प्लेट सरका दी। बच्चे पूछ रहे थे- पापा ...धौनी कैसा है... साक्षी सुन्दर है... न... क्या बताते कि हम तो तीन दिन से अब्दुल्ला बने हुए थे।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

प्रतिशोध

राजनीतिकारों पर और देश के गद्दारों पर
साठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ.
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ ।
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन,
इसीलिये लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फ़र्ख न पड़ेगा कोई फिर भी,
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ॥

रविवार, 27 जून 2010

हमारे पूर्वज
झंझावतों से लड़े
भिड़े,
मगर टूटे नहीं,
इसीलिए बूढा बरगद
खड़ा रहता है,
आपनी आन- बान और शान के साथ
हर बार कर देता है
ओनर किलिंग
अपनी मर्यादा की खातिर
मार देता है,
अपने ही बीज को
ताकि पैदा हो
अच्छी और बेहतर नस्ल
एक झटके में तोड़ देता है
बाधाएं,
किसी बान्ध की बाढ़ की तरह लड़ जाता है
पूरी सभ्यता से
अपनी इज्जत के लिए
और एक हम
यू के लिपितिस
उखड जाते हैं
बहते यौवानावेश में
कर देते हैं खून,
अपने ही खून का
चाची, भाभी या बहन
किसी भी रिश्ते का,
क्योंकि हम बरगद नहीं
यू के लिपितिस हैं,
सिर्फ
यू के लिपितिस



बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बैसाख में आई, बहुत प्यासी है घुघती


बैसाख महीने में घरों के आसपास घुघती की 'बास' को नई नवेली बहुओं के लिए उसके मायके से लाया गया सन्देश समझना हमारी भूल हो सकती है... दरअसल इस महीने में पहाड़ी घरों के आसपास आवाज़ लगाने वाली घुघती प्यास से ब्याकुल है। वह तो पिछले महीने लोगों के सन्देश इधर से उधर करती रही और लोगों ने उसके आशियानों में ही आग लगा दी... पहाड़ के जंगल इस समय धूं -धूं कर जल रहे हैं और घुघती सरीखे लाखों बेजुबान प्राणी जान बचाने के लिए इंसानों की शरण में पहुच रहे हैं.... तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना की तर्ज़ पर पहाड़वासियों ने इन निर्दोष प्राणियों के दर्द को समझा हैं और उनकी प्यास बुझाने के लिए लगभग ख़त्म हो चुकी परम्परा को जीवनदान दे दिया है। अब पहाड़ों की ओखलियों में पानी भर कर रखा जाता है। पानी के बर्तनों को घरों के आसपास रखा जाने लगा है ताकि इन बेजुबानों की प्यास बुझ सके।
पछियों को क्या चाहिए चोंच भर पानी और दो चार दाने लेकिन पर्वतराज हिमालय के घने जंगल अपने इन आश्रितों के पेट भरने की स्थिति में भी नहीं हैं। मजबूरन पछी आबादी की और हसरत भरी उडान भर रहे हैं। पहाड़ के लोगों ने भी अपने दुःख सुख के इन साथियों की बोली को दिल से समझा और उनके लिए दाना-पानी का जुगाड़ करने के प्रयास शुरू कर दिए। दरअसल इस मौसम में दावानल से जंगल दहक रहे हैं। जहाँ आग नहीं है वहां गर्मी ने पछियों का जीना दूभर कर दिया है। नतीजा घुघती और उसके साथ के पछी अब ऊँचे पहाड़ों पर स्थित आबादी वाले स्थानों की तलाश में निकल पड़े हैं। दुखद यह है कि यही मौसम पछियों के लिए प्रजनन कल होता है। आग ने पछियों के तिनका- तिनका जोड़ कर बनाये गए घोसलों को भी जला दिया है। कौन जाने उनमे उनकी नयी पीढीयाँ भी साँस ले रही हों। घुघती जैसे पछियों ने अपने हलकों को तर करने के लिए इंसानों कि मदद मांगी और कई जगह उन्हें निराश नहीं लौटना पड़ा। घिन्दुड़ी यानि गौरैया के लिए हस्त निर्मित घोसले बनाने वाले प्रतीक पंवार इस स्थिति कि दर्दनाक बताते हैं। हो सकता हैं कोई घुघती आपके आँगन में भी आपसे मदद कि गुहार लगाने के लिए आये... उसका एहतराम जरूर करना....उसे इंसानी सभ्यता के नाते पानी देना और दो चार दाने अनाज भी खिलाना...शायद जिंदा रही तो आपकी बेटी को उसकी ससुराल में जाकर अगले साल चैत के महीने में वह आपकी खैर खबर जरूर सुनाएगी... फिर मिलते हैं...छत और आंगन में जरूर देखना .......


बासा घुघती चैत की, खुद लगीं में मैत की
या फिर
घुघती घुरौन लगी म्यार मैत की, बौडी बौडी ऐअग्ये रितु- रितु चैत की
इन दोनों गढ़वाली गीतों में दो चीजें समान हैंएक घुघती दूसरा चैत का महीनापुरानी कहानियों में घुघतियों के चैत के महीने में घरों के आँगन या छत पर घुरघुराने का मतलब नवविवाहिता को उसके मायके का सन्देश देनामाना जाता था। गढ़वाल और कुमाऊ में घुघती के माध्यम से विरह के दर्जनों गीत रचे गए हैं। इस तरह घुघती मानसिक रूप से उत्तराखंड के हर घर की सदस्य बन गयी... घुघती यानि प्यारी सी मासूम फाख्ता......

रविवार, 18 अप्रैल 2010

भक्ति में शक्ति

आस्था में कितना बल है यह शायद अब तक मुझे मालूम नहीं था, लेकिन शदी का पहला महाकुम्भ देख कर उस महा शक्ति के आगे नत मस्तक होने का मन करता है। जिसकी प्रेरणा से करोड़ों लोग पतित पावनी गंगा में एक डुबकी लगाने के लिए समुद्र की तरह हरिद्वार में उमड़ पड़ते हैं। इस बार भी १२ साल बाद हरिद्वार में लगने वाले महाकुम्भ में चार महीनों के दौरान लगभग ५ करोड़ लोगों ने गंगा में दुबकी लगाई। अंतिम शाही स्नान के दिन १४ अप्रैल को तो अकेले १ करोड़ 60लाख लोगों ने गंगा में डुबकी लगाई। इनमे से ५ लाख साधु संत थे। अंतिम शाही स्नान के दिन तो हरिद्वार में शायद ही कोई जगह होगी जहाँ हर हर गंगे के नारे लगाते लोग न दिखे हों। आपको विश्वाश नहीं होगा कि गंगा में सिर्फ तीन डुबकी लगाने के लिए श्रद्धालुओं को इतनी भीड़ में सरकते हुए १५-१५ किलो मीटर का फासला तय करना पड़ा। पर हद है आस्था को कि चिलचिलाती धूप में इतनी मुश्किल झेलने के बावजूद किसी ने उफ़ भी किया हो। हर तरफ गंगा मइया के जयकारे।
जुनून देखिये कि ऋषिकेश के त्रिवेणी घाट पर नहाने के लिए पहुंची मध्यप्रदेश की एक महिला ने गंगा को अर्ध्य दिया और गंगा की लहरों में लेट गयी। जब वह धारा में बहने लगी तो लोगों ने उसे जैसे-तैसे बाहर निकाला, लेकिन महिला लोगों के हाथों से छूट कर फिर से गंगा मैया में समा जाना चाहती थी। लोगों ने जैसे तैसे उसे हॉस्पिटल पंहुचाया। यह तो एक नजारा था। ऐसे जाने कितने नज़ारे कुम्भ के दौरान देखने को मिले। एक महिला अपने तीन महीने के बच्चे को गंगा में डुबकी लगाने के लिए हर की पैड़ी में पहुंची। जब वह बच्चे के साथ गंगा में नहाने का प्रयास कर रही थी तो वहां खड़े पुलिस के जवान ने उसे देखा तो बच्चे को संभाला और महिला को गंगा स्नान का मौका दिया.शायद यह दुनिया का पहला मेला होगा की जब गंगा स्नान के समय धर्म और जाति व्यवस्था की सभी सीमायें तोड़ दी जाती हैं यह उसी हिन्दू धर्म से जुड़ा धार्मिक मेला है जिस पर वर्ण व्यवस्था को लेकर सबसे ज्यादा आरोप लगाये जाते हैं मेले के दौरान शायद ही कोई भारतीय हस्ती होगी जिसने गंगा में डुबकी लगा कर पुण्य कमाया हो सोनिया गाँधी को भी आना था लेकिन व्यवस्थाओं में खलल पड़ने की सम्भावना के चलते वे नहीं आईं दलाई लामा, अडवाणी, गडकरी, हेमा मालिनी, अशोक चव्हाण, भजन लाल, मोहन भागवत, चन्द्र चूड सिंह, सुषमा स्वरा, बसुन्धरा राजे सिंधिया, अशोक सिंघल, प्रवीन तोगडिया तो कुछ नाम हैं आपको बता दें कि कुम्भ मूलतः साधु संतों का मेला है लेकिन उनके दर्शन और गंगा में पुण्य कमाने का मोह ग्रहस्थ भी नहीं छोड़ पाते माना जाता है कि कुम्भ के मुख्य स्नान में गंगा में डुबकी लगाने के लिए ३३ करोड़ देवी देवता भी हरिद्वार कि हर कि पैड़ी में पहुँचते हैं मेले में सभी शंकराचार्यों के अलावा दक्षिण भारत के देवताओं के प्रतीक भी स्नान के लिए हरिद्वार लाये गए
चार महीनों तक गंगा के १५ किलोमीटर तक बढ़ाये गए घाटों में शायद ही कोई दिन रहा हो जब भीड़ नहीं दिखी हो हिमालय की कंदराओं में रहने वाले योगियों ने भी कुम्भ में डेरा डाले रखा मेले की व्यवस्थाओं के लिए अंतिम दिन १३५ आई पी एस अधिकारी लगाये गए थे, उत्तराखंड की ८० प्रतिशत पुलिस जब कम पड़ गयी तो हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश की पुलिस, पी सी, आर ऍफ़ , आई टी बी पी, बी एस ऍफ़ के लावा डॉग स्क्वाड्स, बम स्क़वाड्स के हजारों विशेषज्ञ तैनात किये गए थे कुम्भ का अंतिम शाही स्नान निपट चुका है, लेकिन अभी मेला २८ अप्रैल तक चलेगा लाखों लोग अभी भी मेले में रहे हैं हालत यह हो गयी कि अंतिम शाही स्नान के दिन उत्तराखंड सरकार को पडौसी राज्यों से आने वाले श्रधालुओं को अपना कार्यक्रम एक दो दिनों के लिए टालने का आग्रह करना पड़ा
कुम्भ मेले में शामिल होने के लिए लाखों कि संख्या में विदेशी मेहमानों ने भी हरिद्वार में डेरा डाला कुछ तो साधु ही बन गए गंगा में स्नान के बाद उनका उत्साह देखते ही बनता था एक मात्र हिन्दू देश नेपाल से भी हजारों की तादाद में हरिद्वार ऋषिकेश हुंचे

बधाईयों के बीच तीन लावारिश लाशें



हरिद्वार के महाकुम्भ में अंतिम शाही स्नान के दिन हुई दुर्घटना के कारणों को लेकर उत्तराखंड रकार में भ्रम की स्थिति है। सरकार इसे भगदड़ का नतीजा मानने को तैयार नहीं है। हो भी क्यों यदि सरकार यह मन लेती है तो दुनिया दे सामने उसके महाकुम्भ आयोजन की भद्द पिट जाएगी। अपनी प्रतिस्ठा को बचने के लिए सरकार ने यह दांव खेला है। दरअसल जिस आयोजन को अद्भुत बताते हुए अंतिम शाही स्नान से दो दिन पहले मुख्य मंत्री नोबेल पुरष्कार दिए जाने की बात कर रहे थे। उस आयोजन के अंतिम दिन सारी व्यवस्थाएं ही चौपट हो गयीं। सरकार के अनुसार घटना में सिर्फ सैट लोग ही मारे गए। इनमे से दो तो एक बाबा की गाड़ी के नीचे आकर मरे। बाकी भीड़ ने कुचल कर मार दिए। हैरत वाली बात तो यह है की सरकार यह भी मानने को तैयार नहीं है कि पुलिस ने भीड़ को भगाने के लिए कोई लाठी चार्ज भी किया. हैं न अजीब बात। सरकार यह तो मानती है कि किसी बाबा की गाड़ी के नीचे आकर एक बच्ची की मौत हुई। यह भी मानती है की उस समय पुल पर हजारों लोग भी थे। साथ में यह भी मानती है की दुर्घटना के बाद वहां भीड़ जुट गयी और लोग बाबा व उनके साथियों को पीटने पर उतारू हो गए। लेकिन यह नहीं मानती की पुलिस को वहां लाठी चार्ज करना पड़ा, तो फिर भगदड़ का कारण क्या रहा यह सरकार को नहीं मालूम। इसकी जाँच हो रही है..... वाह री सरकार। सब कुछ दिख रहा है पर देखना कुछ भी नहीं। १४ अप्रैल को हुई इस घटना में मरे हुए तीन लोगों की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। यानी उन्हें पहचानने वाला अभी कोई नहीं आया। कौन जाने कोई बचा भी है नहीं। दरअसल इस घटना में मरने वालों की संख्या पर भी सवालिया निशान लगाये जा रहे हैं। घटना के समय वहां उपस्थित लोगों के अनुसार भगदड़ के समय दर्जनों लोग पुल की रेलिंग टूटने के कारण सीधे गंगा में जा गिरे थे। सरकार का दावा है कि नदी में कुल पांच लोग गिरे थे। फिर जिन शवों को अब तक पहचान के लिए रखा जा रहा है. उनके परिजन कहाँ गए। पुलिस के दावे पर भी अब शक होने लगा है। उसका कहना था कि हर पुल पर और चौराहों पर ख़ुफ़िया कैमरे लगाये गए थे तो उस साधु कि शिनाख्त में इतनी देरी क्यों हुई। अब पुलिस का कहना है कि उन्हें घटना के समय कि फुटेज मिल गयी है। तो भगदड़ या लाठी चार्ज कि फुटेज कहाँ गयी। मतलब साफ है प्रतिष्ठा की लडाई में पुलिस या सरकार बहुत कुछ देखना ही नहीं चाहती। लगता है कि सीधे स्वर्ग पाने की लालसा में न जाने कहाँ से हरिद्वार आये लोगों के शवों को भी लावारिश के रूप में जलाये जाने का दुर्भाग्य झेलना पड़ेगा। सरकार ने तो पांच- पांच लाख रुपये दे कर अपना पल्लू यह कहते हुए छुडा लिया कि मेला अद्भुत रहा। सरकार को बधाइयाँ मिलने का क्रम जारी है. लेकिन तीन लाशें ऑंखें बंद होने के बावजूद सब कुछ देख रहीं हैं। आप और हम भी.......
photo by Virendra Negi








बुधवार, 14 अप्रैल 2010

कहाँ खो गए घिन्दुडा -घिन्दुड़ी


एक वक्त था कि जब गाँव में माँ सुबह भात पकाने के लिए चावल साफ करती तो न जाने कितनी चिड़ियाएँ माँ के आसपास मंडराने लगतीं। बचपन में इन चिड़ियों को उनके असली नाम से ज्यादा हम घिन्दुडा घिन्दुड़ी नाम से ही जानते थे। उन्हें उड़ाने के लिए हम उनके पीछे भागते तो माँ कहती कि यह सबसे निर्दोष चिड़ियाएँ हैं इन्हें मत सताओ। हम माँ का कहना अनमने मन से मान तो लेते लेकिन एक न एक दिन उन्हें पकड़ने कि प्रतिज्ञा अवश्य हर डांट के बाद करते। कुछ बड़े हुए तो अक्ल ने साथ देना शुरू किया। पता चला हमारे घरों में बेफ़िक्र घूमने वाले घिन्दुडा घिन्दुड़ी इन्सान के साथ इतने घुलने मिलने वाले गिने चुने पंछियों में से एक है। उनसे दोस्ती करने का मन करने लगा। कभी कभी माँ के हाथ से चांवलों से निकलने वाले धानों को हम ले कर इन मासूम सी दिखने वाले पंछियों को हम स्वयं ही डाल देते.....घिन्दुडा -घिन्दुड़ी एक- एक धान के लिए आपस में लड़ते तो हमें बुरा लगता..माँ कहती कि पछी तुम्हारी तरह पढ़े किखे थोड़े ही हैं कि खाने के लिए न लड़ें। तब हमे लगता कि खाने के लिए भी कोई लड़ाई होती है भला.... हम तो यही मानते थे कि लड़ाई तो सिर्फ खिलौनों के लिए ही हो सकती है। सचमुच हम तब भी बच्चे थे।
मुझे याद है कि एक दिन एक घिन्दुड़ी को चांवल खिलाते हमने एक बर्तन में ढक्कन रख hकर बंद कर लिया। तब में नहीं जानता था कि मैंने क्या किया है....घिन्दुड़ी बर्तन से बाहर कि लिए पर फद्फदाती रही लेकिन हमें उसमे मजा आ रहा था...उसके साथ हर रोज आने वाला एक टांग वाला घिन्दुडा आज काफी दूर बैठा था. शायद वह हमसे डर गया था... माँ ने देखा तो सच में उस दिन बहुत डांट पड़ी थी. माँ ने डांट फटकार के बाद घिन्दुड़ी को छोड़ने का शासनादेश जारी कर दिया.... और हमने इस आदेश का पालन भी किया... पर उपरी मन से। अगले दिन हमने लंगड़े घिन्दुडा और घिन्दुड़ी को अपने घर के आँगन में नहीं देखा... कई बार माँ कि आँखें भी उन्हें तलाश करती दिखाई पड़तीं ......मैं अपराध बोध से परेशान हो गया। पहली बार लगा कि पंछी भी अपना विरोध दर्ज कर सकते हैं।
आज इस घटना को लगभग ३० साल हो गए हैं.....कल फिर माँ ने चांवल साफ किये, लेकिन चांवल से निकले धान को खाने के लिए कोई घिन्दुडा -घिन्दुड़ी नहीं आये.....माँ कि आँखें कल भी उनकी तलाश कर रहीं थीं। मैनें माँ से कौतुहलवश पूछा घिन्दुडा घिन्दुड़ी नहीं आते आजकल ? माँ ने उदास स्वर में बताया कि उन्होंने उन्हें सालों से नहीं देखा। अब तो बड़ी बड़ी चोंच वाली काली बदसूरत सी चिड़ियाएँ आतीं हैं और हाथ से खाने का सामान छीन जातीं हैं । आज अखबार की एक खबर पर नजर ठहर गयी। खबर थी की गौरेया के पुर्नवास के लिए लकड़ी के घरौंदे बांटे जा रहे हैं। मैं काफी देर सोचता रहा काश मैंने उस दिन गौरेया को न पकड़ा होता तो माँ को घिन्दुड़ी की तलाश न करनी पड़ती. यही गलती आज हमे भारी पड़ रही है.

शनिवार, 16 जनवरी 2010

धार पर सवाल

हिमाचल की पत्रकारिता अभी ऐसे मुकाम पर नहीं पहुच सकी है जहाँ से उसे धनार्जन और भविष्य का साधन बनाने के रास्ते खुलें। संभवत यही वजह है कि आज के हिमाचली पत्रकारों से सर्जनात्मक पत्रकारिता कि उम्मीदें कम ही की जा रहीं हैं। आरोप हैं कि हिमाचली पत्रकारों में प्रोफेश्निलिज़ेम का अभाव है। वे ख़बरों कि तह में जाने के बजाय वे उथली ख़बरें ही लिख कर अपनी जिम्मेदारी से पल्लू झाड़ते नजर आते हैं। पत्रकारिता एक विधा है और इस विधा के माहिर अभी हिमाचल कि धरती ने कम ही जने हैं. जो पैदा भी हुए उन्हें बाहरी राज्यों ने उठा लिया। जिनके अन्दर प्रतिभा है उन्हें अच्छे मंच नहीं मिल रहे है। जिन्हें मंच मिले हैं वे प्रताड़ित हैं। ख़बरें लिखने के बजाये उन्हें विज्ञापनों के लिए भटकन पड़ता है। अब पत्रकारिता को अपने जीवन का उद्देश्य बनाने का सपने ले कर आये युवा अख़बारों के विज्ञापन प्रतिनिधि बन कर रह गए हैं। पत्रकारिता उनके लिए दूसरी प्राथमिकता बन गयी है। आने वाले समय खड़ी दिखाई देगी। हिमाचली पत्रकारिता पर आपकी प्रतिक्रिया आवश्यक हैं ताकि हमें दिशा मिले साथ ही प्रबंधनों को भी शर्म आये।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

धोबी का कुत्ता

हमारे पडौस में एक साहब रहते हैं, नाम भी भला सा है उनका। ठाकुर अमर सिंह.... पिछले कुछ दिनों से परेशान थे। कल आ गए हमारे पास। हाथ में साइकिल की सीट लिए हुए। बोले.... ये लो अपनी उधार में दी हुई सीट। मैं परेशान हो गया था बोझ उठा -उठा कर। मैं हैरान परेशान कभी उनका मुंह देखता तो कभी उनके हाथ में पकड़ी सीट को। इससे पहले की मै कुछ बोल पता, उन्होंने सीट को कुर्सी पर रख दिया। अब अमर सिंह जी खाली हाथ थे । मैं समझ भी नहीं पा रहा था की इस हाल में मैं उन्हें क्या कहूँ। कल तक तो छोटी छोटी बातों पर वे किन्ही बच्चन बाबु की धमकी देने लगते थे लेकिन आज साइकिल की एक सीट को लेकर मेरे सामने खड़े हैं... मैंने हिम्मत करके उनसे बात शुरू की...... भाई साहब आखिर बात क्या है....आप बौखलाए हुए क्यों हैं। सिंह साहब बोले --- मेरी उम्र हो गई इस परिवार की हर जरूरत को पूरा करते। मैंने घर के लोगों के मनोरंजन के लिए बच्चन साहब से लेकर अच्छन तक को घर की चौखट पर ला खड़ा कर दिया। किसी के घर मौत हुई तो मै गया बच्चे के मुंडन में मैंने मिठाई बनती। शादी ब्याह में नाचा गाया... मुझे क्या कहा गाया जोकर न । मुझे सब लोग ताने मारने लगे....... भाई जान हद तो तब हो गयी। जब वो मेरी जोरू का दो कौड़ी का भाई गोपालु भी मुझे आँख दिखाने लगा. अब तुम ही बताओ की क्या मुझे उस घर की साइकिल की सवारी करनी चाहिए jo मेरी बीवी के बाप ने मुझे दी थी और सीट मैंने आप से उधर ले कर लगाईं थी । मेरे मुंह से न चाहते हुए भी न निकल गया। फिर क्या था सिंह साहब तो फिर शुरू हो गए उन्हें तो इस बात का कस्ट था की उन्हें घर से निकालने के लिए अपनों ने ही साजिश रच डाली। अब सिंह साहब उस घर से ही बेघर हो गए हैं जिस घर को सजाने सवारने में उन्होंने कई साल लगा दिए। सिंह साहब के साथ एक बीमारी है। वे फ़िल्मी गाने बहुत गाते हैं... शेरो शायरी का भी शौक रखते हैं, माशा अल्लाह उनकी जान पहचान भी अच्छी है....उनके गाने बजाने का शौक़ ही लोगों को नहीं पचा। अब सिंह साहब निहायत अकेले हैं। उन्हें डर भी सता रहा है की जिस छायावती को वे पानी पी - पी कर कल तक कोसते थे बेघर होने की हालत में वह उन्हें मोहल्ले में रहने भी देगी। घर में ही एक दुकान भी खोल ली थी। अब वह भी बंद हो जाएगी..... । और किसी घर के मालिक से तो उन्होंने बनाई ही नहीं तो रात गुजारने के भी लाले पद सकते हैं। सिंह साहब अपने मोहल्ले को छोड़ भी नहीं सकते बहार गए तो गलियों के कुत्ते भी उन्हें काटने के लिए दौड़ेंगे। मोटापा ज्यादा होने के कारन वे दौड़ भी तो नहीं सकते। कभी पार्टियों की शान समझे जाने वाले सिंह साहब को अब तो पार्टियों से भी तौबा करनी होगी। वरना लोग उन वहां भी सवाल पूंछेंगे....जिनका कोई जवाब उनके पास नहीं होगा...क्या बोलेंगे की बीवी ने घर से निकल दिया..... बेचारे सिंह साहब की समस्या का आपके पास कोई समाधान हो तो मुझे भी बताना...... आखिर उनकी चौदराहत का सवाल है.....तब तक जय राम जी की....

बददिमाग: pahle pahle

बददिमाग: pahle pahle

बुधवार, 6 जनवरी 2010

pahle pahle

ब्लॉग लिखना कठिन है, यह बात सभी नए लोगों के साथ मै भी मानता हूँ लेकिन शुरुआत करने में बुरे भी क्या है यह बात अजय लाहुली ने मुझे बताई, चलिए शुरुआत तो हो गई आगे भी मिलते रहेंगे, आप मुझे रास्ता बताएँगे न