बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बैसाख में आई, बहुत प्यासी है घुघती


बैसाख महीने में घरों के आसपास घुघती की 'बास' को नई नवेली बहुओं के लिए उसके मायके से लाया गया सन्देश समझना हमारी भूल हो सकती है... दरअसल इस महीने में पहाड़ी घरों के आसपास आवाज़ लगाने वाली घुघती प्यास से ब्याकुल है। वह तो पिछले महीने लोगों के सन्देश इधर से उधर करती रही और लोगों ने उसके आशियानों में ही आग लगा दी... पहाड़ के जंगल इस समय धूं -धूं कर जल रहे हैं और घुघती सरीखे लाखों बेजुबान प्राणी जान बचाने के लिए इंसानों की शरण में पहुच रहे हैं.... तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना की तर्ज़ पर पहाड़वासियों ने इन निर्दोष प्राणियों के दर्द को समझा हैं और उनकी प्यास बुझाने के लिए लगभग ख़त्म हो चुकी परम्परा को जीवनदान दे दिया है। अब पहाड़ों की ओखलियों में पानी भर कर रखा जाता है। पानी के बर्तनों को घरों के आसपास रखा जाने लगा है ताकि इन बेजुबानों की प्यास बुझ सके।
पछियों को क्या चाहिए चोंच भर पानी और दो चार दाने लेकिन पर्वतराज हिमालय के घने जंगल अपने इन आश्रितों के पेट भरने की स्थिति में भी नहीं हैं। मजबूरन पछी आबादी की और हसरत भरी उडान भर रहे हैं। पहाड़ के लोगों ने भी अपने दुःख सुख के इन साथियों की बोली को दिल से समझा और उनके लिए दाना-पानी का जुगाड़ करने के प्रयास शुरू कर दिए। दरअसल इस मौसम में दावानल से जंगल दहक रहे हैं। जहाँ आग नहीं है वहां गर्मी ने पछियों का जीना दूभर कर दिया है। नतीजा घुघती और उसके साथ के पछी अब ऊँचे पहाड़ों पर स्थित आबादी वाले स्थानों की तलाश में निकल पड़े हैं। दुखद यह है कि यही मौसम पछियों के लिए प्रजनन कल होता है। आग ने पछियों के तिनका- तिनका जोड़ कर बनाये गए घोसलों को भी जला दिया है। कौन जाने उनमे उनकी नयी पीढीयाँ भी साँस ले रही हों। घुघती जैसे पछियों ने अपने हलकों को तर करने के लिए इंसानों कि मदद मांगी और कई जगह उन्हें निराश नहीं लौटना पड़ा। घिन्दुड़ी यानि गौरैया के लिए हस्त निर्मित घोसले बनाने वाले प्रतीक पंवार इस स्थिति कि दर्दनाक बताते हैं। हो सकता हैं कोई घुघती आपके आँगन में भी आपसे मदद कि गुहार लगाने के लिए आये... उसका एहतराम जरूर करना....उसे इंसानी सभ्यता के नाते पानी देना और दो चार दाने अनाज भी खिलाना...शायद जिंदा रही तो आपकी बेटी को उसकी ससुराल में जाकर अगले साल चैत के महीने में वह आपकी खैर खबर जरूर सुनाएगी... फिर मिलते हैं...छत और आंगन में जरूर देखना .......


बासा घुघती चैत की, खुद लगीं में मैत की
या फिर
घुघती घुरौन लगी म्यार मैत की, बौडी बौडी ऐअग्ये रितु- रितु चैत की
इन दोनों गढ़वाली गीतों में दो चीजें समान हैंएक घुघती दूसरा चैत का महीनापुरानी कहानियों में घुघतियों के चैत के महीने में घरों के आँगन या छत पर घुरघुराने का मतलब नवविवाहिता को उसके मायके का सन्देश देनामाना जाता था। गढ़वाल और कुमाऊ में घुघती के माध्यम से विरह के दर्जनों गीत रचे गए हैं। इस तरह घुघती मानसिक रूप से उत्तराखंड के हर घर की सदस्य बन गयी... घुघती यानि प्यारी सी मासूम फाख्ता......

रविवार, 18 अप्रैल 2010

भक्ति में शक्ति

आस्था में कितना बल है यह शायद अब तक मुझे मालूम नहीं था, लेकिन शदी का पहला महाकुम्भ देख कर उस महा शक्ति के आगे नत मस्तक होने का मन करता है। जिसकी प्रेरणा से करोड़ों लोग पतित पावनी गंगा में एक डुबकी लगाने के लिए समुद्र की तरह हरिद्वार में उमड़ पड़ते हैं। इस बार भी १२ साल बाद हरिद्वार में लगने वाले महाकुम्भ में चार महीनों के दौरान लगभग ५ करोड़ लोगों ने गंगा में दुबकी लगाई। अंतिम शाही स्नान के दिन १४ अप्रैल को तो अकेले १ करोड़ 60लाख लोगों ने गंगा में डुबकी लगाई। इनमे से ५ लाख साधु संत थे। अंतिम शाही स्नान के दिन तो हरिद्वार में शायद ही कोई जगह होगी जहाँ हर हर गंगे के नारे लगाते लोग न दिखे हों। आपको विश्वाश नहीं होगा कि गंगा में सिर्फ तीन डुबकी लगाने के लिए श्रद्धालुओं को इतनी भीड़ में सरकते हुए १५-१५ किलो मीटर का फासला तय करना पड़ा। पर हद है आस्था को कि चिलचिलाती धूप में इतनी मुश्किल झेलने के बावजूद किसी ने उफ़ भी किया हो। हर तरफ गंगा मइया के जयकारे।
जुनून देखिये कि ऋषिकेश के त्रिवेणी घाट पर नहाने के लिए पहुंची मध्यप्रदेश की एक महिला ने गंगा को अर्ध्य दिया और गंगा की लहरों में लेट गयी। जब वह धारा में बहने लगी तो लोगों ने उसे जैसे-तैसे बाहर निकाला, लेकिन महिला लोगों के हाथों से छूट कर फिर से गंगा मैया में समा जाना चाहती थी। लोगों ने जैसे तैसे उसे हॉस्पिटल पंहुचाया। यह तो एक नजारा था। ऐसे जाने कितने नज़ारे कुम्भ के दौरान देखने को मिले। एक महिला अपने तीन महीने के बच्चे को गंगा में डुबकी लगाने के लिए हर की पैड़ी में पहुंची। जब वह बच्चे के साथ गंगा में नहाने का प्रयास कर रही थी तो वहां खड़े पुलिस के जवान ने उसे देखा तो बच्चे को संभाला और महिला को गंगा स्नान का मौका दिया.शायद यह दुनिया का पहला मेला होगा की जब गंगा स्नान के समय धर्म और जाति व्यवस्था की सभी सीमायें तोड़ दी जाती हैं यह उसी हिन्दू धर्म से जुड़ा धार्मिक मेला है जिस पर वर्ण व्यवस्था को लेकर सबसे ज्यादा आरोप लगाये जाते हैं मेले के दौरान शायद ही कोई भारतीय हस्ती होगी जिसने गंगा में डुबकी लगा कर पुण्य कमाया हो सोनिया गाँधी को भी आना था लेकिन व्यवस्थाओं में खलल पड़ने की सम्भावना के चलते वे नहीं आईं दलाई लामा, अडवाणी, गडकरी, हेमा मालिनी, अशोक चव्हाण, भजन लाल, मोहन भागवत, चन्द्र चूड सिंह, सुषमा स्वरा, बसुन्धरा राजे सिंधिया, अशोक सिंघल, प्रवीन तोगडिया तो कुछ नाम हैं आपको बता दें कि कुम्भ मूलतः साधु संतों का मेला है लेकिन उनके दर्शन और गंगा में पुण्य कमाने का मोह ग्रहस्थ भी नहीं छोड़ पाते माना जाता है कि कुम्भ के मुख्य स्नान में गंगा में डुबकी लगाने के लिए ३३ करोड़ देवी देवता भी हरिद्वार कि हर कि पैड़ी में पहुँचते हैं मेले में सभी शंकराचार्यों के अलावा दक्षिण भारत के देवताओं के प्रतीक भी स्नान के लिए हरिद्वार लाये गए
चार महीनों तक गंगा के १५ किलोमीटर तक बढ़ाये गए घाटों में शायद ही कोई दिन रहा हो जब भीड़ नहीं दिखी हो हिमालय की कंदराओं में रहने वाले योगियों ने भी कुम्भ में डेरा डाले रखा मेले की व्यवस्थाओं के लिए अंतिम दिन १३५ आई पी एस अधिकारी लगाये गए थे, उत्तराखंड की ८० प्रतिशत पुलिस जब कम पड़ गयी तो हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश की पुलिस, पी सी, आर ऍफ़ , आई टी बी पी, बी एस ऍफ़ के लावा डॉग स्क्वाड्स, बम स्क़वाड्स के हजारों विशेषज्ञ तैनात किये गए थे कुम्भ का अंतिम शाही स्नान निपट चुका है, लेकिन अभी मेला २८ अप्रैल तक चलेगा लाखों लोग अभी भी मेले में रहे हैं हालत यह हो गयी कि अंतिम शाही स्नान के दिन उत्तराखंड सरकार को पडौसी राज्यों से आने वाले श्रधालुओं को अपना कार्यक्रम एक दो दिनों के लिए टालने का आग्रह करना पड़ा
कुम्भ मेले में शामिल होने के लिए लाखों कि संख्या में विदेशी मेहमानों ने भी हरिद्वार में डेरा डाला कुछ तो साधु ही बन गए गंगा में स्नान के बाद उनका उत्साह देखते ही बनता था एक मात्र हिन्दू देश नेपाल से भी हजारों की तादाद में हरिद्वार ऋषिकेश हुंचे

बधाईयों के बीच तीन लावारिश लाशें



हरिद्वार के महाकुम्भ में अंतिम शाही स्नान के दिन हुई दुर्घटना के कारणों को लेकर उत्तराखंड रकार में भ्रम की स्थिति है। सरकार इसे भगदड़ का नतीजा मानने को तैयार नहीं है। हो भी क्यों यदि सरकार यह मन लेती है तो दुनिया दे सामने उसके महाकुम्भ आयोजन की भद्द पिट जाएगी। अपनी प्रतिस्ठा को बचने के लिए सरकार ने यह दांव खेला है। दरअसल जिस आयोजन को अद्भुत बताते हुए अंतिम शाही स्नान से दो दिन पहले मुख्य मंत्री नोबेल पुरष्कार दिए जाने की बात कर रहे थे। उस आयोजन के अंतिम दिन सारी व्यवस्थाएं ही चौपट हो गयीं। सरकार के अनुसार घटना में सिर्फ सैट लोग ही मारे गए। इनमे से दो तो एक बाबा की गाड़ी के नीचे आकर मरे। बाकी भीड़ ने कुचल कर मार दिए। हैरत वाली बात तो यह है की सरकार यह भी मानने को तैयार नहीं है कि पुलिस ने भीड़ को भगाने के लिए कोई लाठी चार्ज भी किया. हैं न अजीब बात। सरकार यह तो मानती है कि किसी बाबा की गाड़ी के नीचे आकर एक बच्ची की मौत हुई। यह भी मानती है की उस समय पुल पर हजारों लोग भी थे। साथ में यह भी मानती है की दुर्घटना के बाद वहां भीड़ जुट गयी और लोग बाबा व उनके साथियों को पीटने पर उतारू हो गए। लेकिन यह नहीं मानती की पुलिस को वहां लाठी चार्ज करना पड़ा, तो फिर भगदड़ का कारण क्या रहा यह सरकार को नहीं मालूम। इसकी जाँच हो रही है..... वाह री सरकार। सब कुछ दिख रहा है पर देखना कुछ भी नहीं। १४ अप्रैल को हुई इस घटना में मरे हुए तीन लोगों की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। यानी उन्हें पहचानने वाला अभी कोई नहीं आया। कौन जाने कोई बचा भी है नहीं। दरअसल इस घटना में मरने वालों की संख्या पर भी सवालिया निशान लगाये जा रहे हैं। घटना के समय वहां उपस्थित लोगों के अनुसार भगदड़ के समय दर्जनों लोग पुल की रेलिंग टूटने के कारण सीधे गंगा में जा गिरे थे। सरकार का दावा है कि नदी में कुल पांच लोग गिरे थे। फिर जिन शवों को अब तक पहचान के लिए रखा जा रहा है. उनके परिजन कहाँ गए। पुलिस के दावे पर भी अब शक होने लगा है। उसका कहना था कि हर पुल पर और चौराहों पर ख़ुफ़िया कैमरे लगाये गए थे तो उस साधु कि शिनाख्त में इतनी देरी क्यों हुई। अब पुलिस का कहना है कि उन्हें घटना के समय कि फुटेज मिल गयी है। तो भगदड़ या लाठी चार्ज कि फुटेज कहाँ गयी। मतलब साफ है प्रतिष्ठा की लडाई में पुलिस या सरकार बहुत कुछ देखना ही नहीं चाहती। लगता है कि सीधे स्वर्ग पाने की लालसा में न जाने कहाँ से हरिद्वार आये लोगों के शवों को भी लावारिश के रूप में जलाये जाने का दुर्भाग्य झेलना पड़ेगा। सरकार ने तो पांच- पांच लाख रुपये दे कर अपना पल्लू यह कहते हुए छुडा लिया कि मेला अद्भुत रहा। सरकार को बधाइयाँ मिलने का क्रम जारी है. लेकिन तीन लाशें ऑंखें बंद होने के बावजूद सब कुछ देख रहीं हैं। आप और हम भी.......
photo by Virendra Negi








बुधवार, 14 अप्रैल 2010

कहाँ खो गए घिन्दुडा -घिन्दुड़ी


एक वक्त था कि जब गाँव में माँ सुबह भात पकाने के लिए चावल साफ करती तो न जाने कितनी चिड़ियाएँ माँ के आसपास मंडराने लगतीं। बचपन में इन चिड़ियों को उनके असली नाम से ज्यादा हम घिन्दुडा घिन्दुड़ी नाम से ही जानते थे। उन्हें उड़ाने के लिए हम उनके पीछे भागते तो माँ कहती कि यह सबसे निर्दोष चिड़ियाएँ हैं इन्हें मत सताओ। हम माँ का कहना अनमने मन से मान तो लेते लेकिन एक न एक दिन उन्हें पकड़ने कि प्रतिज्ञा अवश्य हर डांट के बाद करते। कुछ बड़े हुए तो अक्ल ने साथ देना शुरू किया। पता चला हमारे घरों में बेफ़िक्र घूमने वाले घिन्दुडा घिन्दुड़ी इन्सान के साथ इतने घुलने मिलने वाले गिने चुने पंछियों में से एक है। उनसे दोस्ती करने का मन करने लगा। कभी कभी माँ के हाथ से चांवलों से निकलने वाले धानों को हम ले कर इन मासूम सी दिखने वाले पंछियों को हम स्वयं ही डाल देते.....घिन्दुडा -घिन्दुड़ी एक- एक धान के लिए आपस में लड़ते तो हमें बुरा लगता..माँ कहती कि पछी तुम्हारी तरह पढ़े किखे थोड़े ही हैं कि खाने के लिए न लड़ें। तब हमे लगता कि खाने के लिए भी कोई लड़ाई होती है भला.... हम तो यही मानते थे कि लड़ाई तो सिर्फ खिलौनों के लिए ही हो सकती है। सचमुच हम तब भी बच्चे थे।
मुझे याद है कि एक दिन एक घिन्दुड़ी को चांवल खिलाते हमने एक बर्तन में ढक्कन रख hकर बंद कर लिया। तब में नहीं जानता था कि मैंने क्या किया है....घिन्दुड़ी बर्तन से बाहर कि लिए पर फद्फदाती रही लेकिन हमें उसमे मजा आ रहा था...उसके साथ हर रोज आने वाला एक टांग वाला घिन्दुडा आज काफी दूर बैठा था. शायद वह हमसे डर गया था... माँ ने देखा तो सच में उस दिन बहुत डांट पड़ी थी. माँ ने डांट फटकार के बाद घिन्दुड़ी को छोड़ने का शासनादेश जारी कर दिया.... और हमने इस आदेश का पालन भी किया... पर उपरी मन से। अगले दिन हमने लंगड़े घिन्दुडा और घिन्दुड़ी को अपने घर के आँगन में नहीं देखा... कई बार माँ कि आँखें भी उन्हें तलाश करती दिखाई पड़तीं ......मैं अपराध बोध से परेशान हो गया। पहली बार लगा कि पंछी भी अपना विरोध दर्ज कर सकते हैं।
आज इस घटना को लगभग ३० साल हो गए हैं.....कल फिर माँ ने चांवल साफ किये, लेकिन चांवल से निकले धान को खाने के लिए कोई घिन्दुडा -घिन्दुड़ी नहीं आये.....माँ कि आँखें कल भी उनकी तलाश कर रहीं थीं। मैनें माँ से कौतुहलवश पूछा घिन्दुडा घिन्दुड़ी नहीं आते आजकल ? माँ ने उदास स्वर में बताया कि उन्होंने उन्हें सालों से नहीं देखा। अब तो बड़ी बड़ी चोंच वाली काली बदसूरत सी चिड़ियाएँ आतीं हैं और हाथ से खाने का सामान छीन जातीं हैं । आज अखबार की एक खबर पर नजर ठहर गयी। खबर थी की गौरेया के पुर्नवास के लिए लकड़ी के घरौंदे बांटे जा रहे हैं। मैं काफी देर सोचता रहा काश मैंने उस दिन गौरेया को न पकड़ा होता तो माँ को घिन्दुड़ी की तलाश न करनी पड़ती. यही गलती आज हमे भारी पड़ रही है.