बुधवार, 2 जुलाई 2014

लघु कथा


वो निरभागे लोग

 हरिलाल ने सारी उम्र मेहनत करने में ही काट दी। दो बच्चों को बड़ा आदमी बनाने और अपने आसियाना बनाने के सपने के सामने उसने अपने सारे शौक कुर्बान कर दिये। पचास के आसपास पहुंचा तो बेटी की शादी कर दी। बेटा इंजीनियर बन गया तो हरिलाल ने जीवन भर की कमाई से शहर के अंदर थोड़ी से जगह खरीद कर तीन कमरों का मकान खड़ा कर दिया। मकान छोटा ही सही लेकिन हरिलाल के लिए तो ताजमहल से कम न था। बेटे की नौकरी लगी तो उसकी भी शादी कर दी गई। बहू बेटा दूसरे शहर में रहते थे, सो घर में बूढ़ा हरिलाल और उसकी बीवी ही बची। इसलिए एक कमरा किराए पर दे दिया गया। इस उम्र में भी हरिलाल को अपना और बीवी की पेट भरने के लिए दिन भर मेहनत करनी पड़ रही थी। एक दिन बाजार से आते समय उसके किसी वाहन ने ऐसी टक्कर मारी कि हरिलाल फिर कभी नहीं उठ सका। लाश घर पहुंचा दी गई, लेकिन बेटे के देर रात पहुंचने के कारण शव का अंतिम संस्कार अगली सुबह करने का फैसला हुआ। मकान में जगह न होने के कारण हरिलाल के शव को पूरी रात घर के बाहर सड़क के किनारे रखा गया। जिस बेटे को बड़ा आदमी बनाने और ताजमहल खड़ा करने के लिए हरिलाल ने उम्र खपा दी, आखिरी रात उसकी लाश को उसी बेटे का न तो साथ ही मिला और न ही मकान की छत का साया।

मंगलवार, 13 मई 2014

आओ न कुछ बात करें

किसका घूंसा - किसकी लात, आओ न कुछ बात करें...
होती रहती है बरसात, आओ न कुछ बात करें।

अगर मामला और भी है तो वो भी बन ही जाएगा,
छोड़ो भी भी ये जज्बात, आओ न कुछ बात करें।

नदी किनारे शहर बसाना यूं भी मुश्किल होता है,
गांव के देखे हैं हालात, आओ न कुछ बात करें।

इक इक- दो दो घूट गटक कर सैर करेंगे दुनिया की,
पैसे देंगे कुछ दिन बाद, आओ न कुछ बात करें।

बूंद-बूंद ये खून बहा कर क्यों प्यासे रह जाते हो,
बांटे जीवन की सौगात, आओ न कुछ बात करें।

तुम गैरों के हो गए तो क्या! प्यार हमेशा रहता है,
कौन रहा जीवन भर साथ, आओ न कुछ बात करें।

नींदों को पलकों पर रख कर छत पर लेटे रहते थे,
फिर आई वैसी ही रात, आओ न कुछ बात करें।

कमर तोड़ती है सरकार चाहे जिसको कुर्सी दो,
कैसा फूल और किसका हाथ, आओ न कुछ बात करे।

मंगलवार, 6 मई 2014

अपने घर के आंगन में


कुुछ अपने ठहरा ले भइया, अपने घर के आंगन में।
जैसे सांप छिपा ले भइया अपने घर के आंगन में।।

रोज- रो ज की पत्थर बाजी से अब तू घबराता है।
पाकिस्तान बसा ले भइया अपने घर के आंगन में ।।

कंधा देने को मुर्दे को, मिलते हैं अब लोग कहां।
खुद की चिता सजा ले भइया, अपने घर के आंगन में।।

खेल-खेल में नोट छापना, कलमाड़ी से पूछ जरा।
एक आयोजन करवा ले भइया, अपने घर के आंगन में ।।

गुलेल से निकले इक कंकड़ ने आंख फोड़ दी बच्चे की।
और आम उगा ले भइया अपने घर के आंगन में।।

तूने मां- बाप को पीटा तेरा बेटा देख रहा।।
इक कुटिया बनवा ले भइया अपने घर के आंगन में ।।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

जागते रहो!

फिर लगी बारात सजने, जागते रहो!
और लगी खैरात बंटने जागते रहो!
पहन के कुर्ता पैजामा, सर पे टोपी कीमती,
आ रहे हैं वोट ठगने, जागते रहे!!

लोकतंत्र के हवन में लाजमी आहूतियां,
क्यों किसी के मंत्र जपने जागते रहो!

यदि समर है ये तो तुम भी पांडवों के पुत्र हो,
देना मत यह हाथ कटने जागते रहो!

वोट की कीमत प्रजा जब जान जाए देश में,
फिर लगेंगे गांव नपने, जागते रहो!

यदि परिश्रम हाथ में अपने लिखा है, छोडि़ए,
दो इन्हें ऐड़ी रगडऩे जागते रहो!  

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

यह है राजनीति का संक्रमणकाल


इसे भारतीय राजनीति का संक्रमण काल ही कहा जाएगा। जब परंपरागत राजनीति का आधुनिक व नई सोच की विचारधारा अधिगृहण कर रही है। बेशक मनमोहन सरकार लगातार शासन करने का रिकार्ड अपने नाम कर गई और इसमें भी कोई दो राय नहीं कि उसके पास देश के सबसे चर्चित व महत्वपूर्ण परिवार से आने वाले वाले दमकता चेहरा रहा हो। चालीस के आसपास के राहुल को आधुनिक तो माना ही जा सकता है। लेकिन उनके काम काज से तो यही लगा कि वे सतता के मायाजाल से न कभी बंधे और न ही उन्होंने कभी राजनीति में रुचि ली। उनका राजनीति से सन्यासभाव ही कांग्रेस की इस गत के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। दावे से यह भी नहीं कहा जा सकता कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने से देश वैसा ही चलने लगेगा जैसा कि आम मतदाता उनके नाम पर वोट देने का विचार करते समय सोच रहा है। भाजपा में परंपरागत राजनीति करने वालों की कमी नहीं। स्वयं मोदी भी क्या यह बता सकते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा दोनों की जंग में यदि केजरीवाल अपनी ताकत साबित न करते तो इन लोकसभा चुनावों के की यह तस्वीर निखर कर सामने आ पाती। दरअसल आम आदमी पार्टी का दिल्ली में उद्भव भारत की राजनीति में अचानक हुए इस बदलाव की नींव कहा जाना चाहिए।  यदि यह सही नहीं है तो क्या अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ भाजपा स्मृति ईरानी को टिकट देती। यह भी तो नई राजनीति है। पर सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल को अभी भारतीय राजनीति के दांव पेंच सीखने बकाया है। उन्हें भारतीय जनता ने जो मान सम्मान दिया है वह उनकी सादगी की वजह से है। इस सादगी का वरण मोदी ने अभी तक तो नहीं किया है।  इसलिए आने वाले कुछ समय और भारतीय राजनीति को इस संक्रमणकाल से गुजरना होगा। तब कहीं जा कर देशहित में काम करने वाले युवा नेताओं की सेना तैयार होगी। तब तक सिवाए प्रतीक्षा के कुछ किया भी नहीं जा सकता।