रविवार, 29 अगस्त 2010

आओ न कुछ बात करें


कु अटक रहा था मन में, खटक रहा था जैसा भी आया आपको सौंप रहा हूं.... देखें तो जरा

किसका घूंसा - किसकी लात, आओ न कुछ बात करें...
होती रहती है बरसात, आओ न कुछ बात करें।

अगर मामला और भी है तो वो भी बन ही जाएगा,
छोड़ो भी भी ये जज्बात, आओ न कुछ बात करें।

नदी किनारे शहर बसाना यूं भी मुश्किल होता है,
गांव के देखे हैं हालात, आओ न कुछ बात करें।

इक इक- दो दो घूट गटक कर सैर करेंगे दुनिया की,
पैसे देंगे कुछ दिन बाद, आओ न कुछ बात करें।

बूंद-बूंद ये खून बहा कर क्यों प्यासे रह जाते हो,
बांटे जीवन की सौगात, आओ न कुछ बात करें।

तुम गैरों के हो गए तो क्या! प्यार हमेशा रहता है,
कौन रहा जीवन भर साथ, आओ न कुछ बात करें।

नींदों को पलकों पर रख कर छत पर लेटे रहते थे,
फिर आई वैसी ही रात, आओ न कुछ बात करें।

कमर तोड़ती है सरकार चाहे जिसको कुर्सी दो,
कैसा फूल और किसका हाथ, आओ न कुछ बात करे।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

इधर भी प्रोब्लम है भाई

उड़नतश्तरी का पर घूम कर आया तो पता चला कि उन्हें अपनी रचना के लिए एक अदद शीर्षक की जरूरत है। पढ़ कर अजीब लगा कि समीर जैसी शख्सियत को एक अदना सा शीर्षक नहीं मिल रहा है क्या विडंबना है कहीं जहां खूबसूरत बदन है तो वहां घाघरा नहीं और जहां घाघरा है वहां बदन ही नहीं। जो भी हो अपनी पे आते हैं। मेरा मामला समीर लाल जी से कुछ अलग है। उनके पास शीर्षक नहीं है तो मेरे पास रचना ही नहीं है। अब आप सलाह देंगे कि रचना और शीर्षक का आदान प्रदान कर लो। पर मित्रों यह भी संभव नहीं है। उनकी रचना अगर मेरे शीर्षक से मैच न कर पाई तो मेरी तो भद ही पिट जाएगी न इस संभ्रात जगत में (वैसे यह भी एक फंडा है कि अपनी चीज का दाम हमेशा दूसरे से ऊंचा ) । वैसे बता दूं कि यह शीर्षक कई साल से मेरे जेहन को दुख पहुंचा रहा है। दुख क्या दे रहा है कचोट रहा है। मुझसे लड़ रहा है। मुझे ताने दे रहा है। रातों को सोने नहीं देता और दिन में कुछ काम करने नहीं देता। मजेदार बात यह है कि शीर्षक मुझसे बातें करता है कि रचनाएं कैसी हों। कम्बख्त को बीस तीस रचनाएं सुना चुका हूं पर उसे पसंद ही नहीं आतीं। इसमें हीरोइन सैक्सी नहीं है। तो उसमें हीरो आम सा नहीं लगता। मन करता है कि उसे कह दूं कि तू आम खा पेड़ मत गिन। पर क्या करुं अपने जने को कोई कुछ कह भी नहीं सकता। डरता हूं आत्महत्या कर ले तो मै तो शीर्षक हंता कहलाने लगूंगा न। आपकों क्या पता कि शीर्षक कितनी मुश्किल से मिलता है... (समीर जी से पूछो जो आपसे पूछ रहे हैं।) शीर्षक मेरे पास है पर रचना नहीं इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है मित्रों। मेरे शीर्षक के लिए कोई कहानी हो तो आप मुझे जरूर लिखना... पर स्मरण रहे आपकी कहानी मेरे शीषर्क को पसंद आनी आवश्यक है। ऐसी कहानियां जिन्हें मेरा शीर्षक स्वीकार नही करेगा उन्हें वापस भेजना मेरे लिए दुष्कर होगा...इसलिए लिखी और भूल जाओ समझो।
कहानी लिखने से पहले कुछ शेरों पर नजर दौड़ा लें और मजा लें
कि जिनमें डूब गए थे हम वही मंझधार
गया तूफान तो देखा वो किनारे निकले।।
जिनपे उम्मीद थी ले जाएगें नदी पार हमें,
मगर जब निकले तो वे मेरे सहारे निकले।।
जिनके इश्क के चर्चे सुने थे घर-घर में,
मिले हमसे तो या खुदा वो कुंवारे निकले।।
हमें तो खौफ था गैरों पे डर झूठा निकला,
कि हमें मारा जिन्होंने वो हमारे निकले।।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

तुम आओगे न... गिर्दा



65 साल की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती और तुम इतनी ही लिखा लाए। पर जितना भी जिए शानदार जिए। तुम गिर्दा नहीं एक कहानी थे... एक अनवरत कहानी जिसका कोई अंत नहीं... बस आरंभ था। तुम्हे क्या लगता है कि तुमने जिंदगी के इन 65 सालों में अपनी जिंदगी जी। नहीं तुम एक युग जी गए... गिर्दा....। वो युग जो अब पहाड़ पर फिर लौट कर नहीं आएगा। क्या आदमी थे रे तुम... ठेठ पहाड़ी जीवन... वहीं ठसक ...वहीं कसक ... डटे रहने की रणभूमि में.... पहाड़ की तरह। मां पिता ने गिरीश नाम दिया... तुम्हे शायद जंचा नहीं सो गिर्दा हो गए। पूरी दुनिया के लिए ...गिर्दा... यानी गिरीश दा...। दादा यानी बड़ा भाई जो छोटों को हर गलती पर प्यार भरी डांट पिलाता है। पुचकारता है और फिर गलती न करने की नसीहत देता है।
सारा पानी चूस रहे हो , नदी संमदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर कन्कड़ पत्थर कूट रहे हो।।
महल चौबारे बह जाएगें, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूँद बूंद को तरसोगे जब
बोल व्यापारी तब क्या होगा।नगद उधारी तब क्या होगा।।
गिर्दा.... नाम के अलावा तुमने और क्या लिया दुनिया से और दिया क्या- क्या... शायद तुमने इस पर गौर ही नहीं किया। तुम तो पहाड़ थे। तुम्हें क्या पता हीरे क्या हैं और जवाहरात क्या। तुम तो बस उगले जा रहे थे। बेजान शब्दों को जान देते हुए ...शब्द ...शब्द...अहा हीरे ...जवाहरात।तुम्हारा जाना एक चोट दे गया उन एक करोड़ उत्तराखण्डियों को जो तुम्हारे गीत गा-गा कर अलग राज्य के नागरिक बन गए। यह अजीब जज्बा तुमने ही तो भरा था उनके भीतर गाते गाते लडऩे का ... अजीब है न... पर यह किया तुमने ही...।मेरे जैसे कितने ही हैं जो तुम्हें साक्षात न देख सके लेकिन तुम्हें तुम्हारे गीतों, जन गीतों से जानते हैं। उन सबमें तुम जिंदा हो गिर्दा.... हमें लगता है कि तुम मिटे नहीं तुम चले गए हो कुछ समय के लिए और फिर लौटोगे ... गाते हुए ...
चलो रे नदी तट पार चलो रे...बहता पानी, चलता जीवन, थमा के हाहाकार चलो रे...
तुम गए नहीं गिर्दा यहीं ...कहीं हो... बस ओझल से हो... जब भी परेशान होंगे... तुम्हारे जन गीतों से ही पुकारेगे तुम्हें ... तुम आओगे न...क्योकि अभी लडऩी हैं हमने लंबी लड़ाई...तुम दोगे न साथ पहले की तरह... इस बार भी...

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

एक और राजधानी

देहरादून को धोखे से उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी बनाने की बात अभी लोग भूले भी नहीं हैं की एक और राजनैतिक साजिश सामने आ गई। देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाने के बाद यहीं जड़ें जमा कर बैठे हमारे माननीयों और नौकरशाहों ने अब एफिलिएटिंग यूनिवर्सिटी को देहरादून में ‘अस्थाई’ तौर पर जमाने का बीड़ा उठाया है। इसे लेकर गत मंगलवार को मंत्रीमंडल ने प्रस्ताव भी पारित कर हालाँकि नव प्रस्तावित को टिहरी के बादशाही थौल में खोले जाने का प्रस्ताव पारित किया गया, लेकिन वहां जिस स्थान पर इस यूनिवर्सिटी को खोले जाने की राय बनी है, वो कैम्पस केंद्रीय विश्व विद्यालय की संपत्ति है और क्या गारंटी है कि केंद्र सरकार अपनी संपत्ति को प्रदेश सरकार को दे ही दे। हालांकी मीडिया ने यह आशंका मंत्रीमंडल की बैठक की जानकारी दे रहे मुख्य सचिव एनएस नपल्चयाल के सामने भी उठाई। उन्होंने बताया की इस मामले में केंद्र सरकार को पत्र भेजा जाएगा।साफ है कि सरकार ने बादशाही थौल में जगह मिलने की उम्मीद के साथ ही कालेजों को संबदधता प्रदान करने वाले इस विश्व विद्यालय की स्थापना का निर्णय ले लिया। पहले ही सरकार के हाथों राजधानी के मामले में ठगे गए लोगों के लिए यह मामला ‘दूसरी राजधानी’ से कम नहीं है। कोई नई बात नहीं होगी कि बादशाही थौल के लोगों को अपना हक लेने के लिए बाद में आंदोलन का सहारा लेना पड़े।प्रदेश के 193 स्वपोषित कालेजों को संबद्धता प्रदान करने के लिए बनाए गए इस विश्व विद्यालय की अहमियत सरकार भी जानती है और अफसरशाही भी। जब तक बादशाही थौल में स्थान नहीं मिल जाता तब तक विवि को दून में ही चलाया जाए। मजेदार बात यह है की दून में भी अभी विवि के लिए कोई भवन चिन्हित नहीं किया गया है। विश्व विद्यालय के कुलपति से लेकर रजिस्ट्रार समेत कुल 19 पदों का सृजन किया जा चुका है। दरअसल बादशाही थौल में हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्व विद्यालय के भवन पर सरकार की नजरें टिकी हैं । चूँकि यह भवन केंद्र सरकार की संपत्ति है इसलिए यह केंद्र पर निर्भर है कि वह अपनी इस संपत्ति को प्रदेश सरकार को सौंपती है या नहीं। सूत्रों का कहना है कि केंद्र आसानी से बादशाही थौल के परिसर को प्रदेश को नहीं सौंपने वाला। हालांकि प्रदेश सरकार ने इस प्रस्ताव के साथ एफिलिएटिंग विश्व विद्यालय के स्थापना की गेंद केंद्र के पाले में फेंक दी है। गेंद चाहे किसी के पाले में जाए एक बात तो साफ है कि प्रदेश सरकार ने दून में विवि का अस्थाई परिसर बनाने का निर्णय लेकर देहरादून में एक और राजधानी की नींव डाल दी है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

गुलामी

देखो अल्ताफ दो दिन बाद 15 अगस्त है। पूरे कैंपस को साफ करवा दो। वो सामने घास कटवा देना...वहां शाम को पार्टी का इंतजाम करना है। काकटेल तो अंदर ही करवा देंगे। इस तरफ पेड़ के नीचे दिन में झंडारोहण होना है...यहां एक भी पत्ता दिखाई न पड़े। गेट पर मेहमानों के आने के लिए कालीन डलवाना.... और हां अंदर कार्यक्रम के दौरान आसपास की बस्ती सें कोई बच्चा या आदमी न आने पाए... पिछली बार अपने साथ तमाम गंदगी ले आए थे...नामाकूल...तुम्हें और आदमियों की जरूरत पड़े तो बाहर से बुला लेना...
साहब सब हो जाएगा ...आप चिंता न करें... पर साब एक बात बतानी थी पिछले साल के तीन सौ रुपए अभी तक मजदूरों को नहीं दिए हैं।
यार तुम लोग एक एक पैसे के लिए मरते हो... तीन सौ रुपए एक साल से याद है तुझे... यहां इतना काम पड़ा है तू तीन सौ रुपल्ली के लिए रो रहा है... इस बार दूसरे मजदूर ले कर आना... उन्हें काम धाम कुछ नहीं आता...रुपए लेने के लिए चले आते हैं...साले
ठीक है साब...पर मजदूर सौ रुपए दिहाड़ी से नीचे नहीं मानते।
सौ रुपए...यह तो मजदूरी नहीं ब्लैक मेलिंग है...उन्हें 75 रुपए के हिसाब से देना और बिल मुझे दिखा कर बनाना...बाद में हिसाब ने बिगड़ जाए
साब 75 रुपए में तो नहीं हो सकेगा...तो फिर क्या पूरा खजाना खोल दूं उनके लिए...काम ही कितना है...करना है तो करें
ठीक है साब मैं अपने बच्चों को ही काम पर लगा लूंगा...पर साब पिछले साले के तीन सौ रुपए तो मिल जाएगें न
ठीक है तू अपने बच्चों को लगाएगा तो डेढ सौ रुपए ले जा...पिछला हिसाब बराबर।ठीक है साब...

बुधवार, 11 अगस्त 2010

कोख

बाढ़ का पानी उतरा तो सरकारी बाबू अपने ऑफिसों से निकल कर मुआवजा बांटने के लिए गांव में ही आ गए। बाढ़ के दौरान ही जो लोग शहर पहुंच सके थे उन्हें ऑफिसों में ही खुले दिल से मुआवजा बांट दिया गया था। बाबू रजिस्टर खोल कर नाम पुकारता और पीड़ित आगे बढ़कर अपना मुआवजा ले जाता। मुआवजा लेने वालों की भीड़ लगी थी। सब अपने अपने नाम की इंतजारी में थे। जैसे जैसे काम निपटने लगा, भीड़ के बीच खड़ी बुढ़िया की धडकनें बढ़ने लगीं। कई दिनों से कुछ न खाने के कारण पीला पला उसका चेहरा बाबू से बात करने के लिए तमतमाने लगा था। वह बड़ी उम्मीद से अपने नाम की इंतजारी कर रही थी। सब निपट गए... लोग अपने अपने घरों को लौट गए। अकेले खड़ी बुढ़िया को देख बाबू ने पूछा... ऐ क्या नाम है।सरबतिया...

बाबू ने रजिस्टर के पन्ने पलटते हुए पूछा- पति का नाम...

बुढ़िया ने शरमाते हुए बताया- लछमन...

बाबू ने पूरा रजिस्टर पलट दिया, लेकिन इस तरह के नाम का कोई पीडित उसे नहीं मिला, फिर बाबू ने पिछले पन्ने भी खंगाल दिए। एक जगह पर पेन लगाकर वोह रुक गया -अरे तेरे मरे का मुआवजा तो तेरा बेटा शहर आकर ही ले जा चुका है...पूरे पांच हजार रुपए मिले उसें... जा भाग यहां से... तू तो कागजों में मर चुकी है...बुढ़िया बाबू की बातों को हैरानी से सुन रही थी। उसकी जुबान तालू से चिपक गई, बिना कुछ बोले ही वह चुपचाप वापस लौट गई...शायद अपनी कोख को गाली दे रही थी...

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

काट डालो सारे बांस

आईपीएल वाले मोदी तो शहीद हो गए, अब बारी है कॉमनवैल्थ वाले कलमाड़ी की। हमारी सरकार ने इन घटनाओं से सराहनीय सबक लिया है। उसने सतर्कता के साथ घोषणा कर दी कि वह ऐसे किसी भी खेल के आयोजन को अपने सिर नहीं लेगी जिसमें देश के इतने काबिल लोगों की बलि चढ़ जाए। आखिर मोदी और कलमाड़ी ने देश को बहुत कुछ दिया और उनका ही सार्वजनिक बहिष्कार वह भी दो कौड़ी के इन खेलों के चक्कर में यह तो बर्दाश्त करने लायक था ही नहीं। सरकार ने सापफ कर दिया कि भारत एशियाई खेलों के लिए होने वाली बोली में हिस्सेदारी ही नहीं करेगा। भाई साब! अपने देश की प्रतिभाओं के चेहरों पर स्वयं ही कालिख पोतने से तो अच्छा है कि इस प्रकार के आयोजनों को भारत में लाया ही नहीं जाए। पिफर देखते हैं कि हम पर कौन अंगुली उठाता है। अंगुली तोड़ न डालेंगे उसकी...। अब हमारा सर्वाधिकार होगा कि हम जब चाहे दूसरों का बना बनाया खेल बिगाड़ दें। वैसे भी हमारे पास ऐसे मीडिया तंत्रा तो है ही तिल का ताड़ बना दे। चौबीस घंटे तक समाचारों के नाम पर किसी की भी मुंडी मरोड़ने वाले हमारे चैनल दूसरों की कमियों को दिखाएगें तो उन्हें काम मिलेगा और हम दूसरों की छीछालेदर पर बल्लियों उछल रहे होंगे। सरकार एशियाओं खेलों की बोली में हिस्सा न लेने का ऐसा दांव खेलेगी यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। सचमुच धन्य हैं हमारी सरकार, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
तपन
08954024571