रविवार, 29 अगस्त 2010
आओ न कुछ बात करें
शनिवार, 28 अगस्त 2010
इधर भी प्रोब्लम है भाई
कहानी लिखने से पहले कुछ शेरों पर नजर दौड़ा लें और मजा लें
कि जिनमें डूब गए थे हम वही मंझधार
गया तूफान तो देखा वो किनारे निकले।।
जिनपे उम्मीद थी ले जाएगें नदी पार हमें,
मगर जब निकले तो वे मेरे सहारे निकले।।
जिनके इश्क के चर्चे सुने थे घर-घर में,
मिले हमसे तो या खुदा वो कुंवारे निकले।।
हमें तो खौफ था गैरों पे डर झूठा निकला,
कि हमें मारा जिन्होंने वो हमारे निकले।।
सोमवार, 23 अगस्त 2010
तुम आओगे न... गिर्दा
65 साल की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती और तुम इतनी ही लिखा लाए। पर जितना भी जिए शानदार जिए। तुम गिर्दा नहीं एक कहानी थे... एक अनवरत कहानी जिसका कोई अंत नहीं... बस आरंभ था। तुम्हे क्या लगता है कि तुमने जिंदगी के इन 65 सालों में अपनी जिंदगी जी। नहीं तुम एक युग जी गए... गिर्दा....। वो युग जो अब पहाड़ पर फिर लौट कर नहीं आएगा। क्या आदमी थे रे तुम... ठेठ पहाड़ी जीवन... वहीं ठसक ...वहीं कसक ... डटे रहने की रणभूमि में.... पहाड़ की तरह। मां पिता ने गिरीश नाम दिया... तुम्हे शायद जंचा नहीं सो गिर्दा हो गए। पूरी दुनिया के लिए ...गिर्दा... यानी गिरीश दा...। दादा यानी बड़ा भाई जो छोटों को हर गलती पर प्यार भरी डांट पिलाता है। पुचकारता है और फिर गलती न करने की नसीहत देता है।
सारा पानी चूस रहे हो , नदी संमदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर कन्कड़ पत्थर कूट रहे हो।।
महल चौबारे बह जाएगें, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूँद बूंद को तरसोगे जब
बोल व्यापारी तब क्या होगा।नगद उधारी तब क्या होगा।।
गिर्दा.... नाम के अलावा तुमने और क्या लिया दुनिया से और दिया क्या- क्या... शायद तुमने इस पर गौर ही नहीं किया। तुम तो पहाड़ थे। तुम्हें क्या पता हीरे क्या हैं और जवाहरात क्या। तुम तो बस उगले जा रहे थे। बेजान शब्दों को जान देते हुए ...शब्द ...शब्द...अहा हीरे ...जवाहरात।तुम्हारा जाना एक चोट दे गया उन एक करोड़ उत्तराखण्डियों को जो तुम्हारे गीत गा-गा कर अलग राज्य के नागरिक बन गए। यह अजीब जज्बा तुमने ही तो भरा था उनके भीतर गाते गाते लडऩे का ... अजीब है न... पर यह किया तुमने ही...।मेरे जैसे कितने ही हैं जो तुम्हें साक्षात न देख सके लेकिन तुम्हें तुम्हारे गीतों, जन गीतों से जानते हैं। उन सबमें तुम जिंदा हो गिर्दा.... हमें लगता है कि तुम मिटे नहीं तुम चले गए हो कुछ समय के लिए और फिर लौटोगे ... गाते हुए ...
चलो रे नदी तट पार चलो रे...बहता पानी, चलता जीवन, थमा के हाहाकार चलो रे...
तुम गए नहीं गिर्दा यहीं ...कहीं हो... बस ओझल से हो... जब भी परेशान होंगे... तुम्हारे जन गीतों से ही पुकारेगे तुम्हें ... तुम आओगे न...क्योकि अभी लडऩी हैं हमने लंबी लड़ाई...तुम दोगे न साथ पहले की तरह... इस बार भी...
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
एक और राजधानी
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
गुलामी
साहब सब हो जाएगा ...आप चिंता न करें... पर साब एक बात बतानी थी पिछले साल के तीन सौ रुपए अभी तक मजदूरों को नहीं दिए हैं।
यार तुम लोग एक एक पैसे के लिए मरते हो... तीन सौ रुपए एक साल से याद है तुझे... यहां इतना काम पड़ा है तू तीन सौ रुपल्ली के लिए रो रहा है... इस बार दूसरे मजदूर ले कर आना... उन्हें काम धाम कुछ नहीं आता...रुपए लेने के लिए चले आते हैं...साले
ठीक है साब...पर मजदूर सौ रुपए दिहाड़ी से नीचे नहीं मानते।
सौ रुपए...यह तो मजदूरी नहीं ब्लैक मेलिंग है...उन्हें 75 रुपए के हिसाब से देना और बिल मुझे दिखा कर बनाना...बाद में हिसाब ने बिगड़ जाए
साब 75 रुपए में तो नहीं हो सकेगा...तो फिर क्या पूरा खजाना खोल दूं उनके लिए...काम ही कितना है...करना है तो करें
ठीक है साब मैं अपने बच्चों को ही काम पर लगा लूंगा...पर साब पिछले साले के तीन सौ रुपए तो मिल जाएगें न
ठीक है तू अपने बच्चों को लगाएगा तो डेढ सौ रुपए ले जा...पिछला हिसाब बराबर।ठीक है साब...
बुधवार, 11 अगस्त 2010
कोख
बाढ़ का पानी उतरा तो सरकारी बाबू अपने ऑफिसों से निकल कर मुआवजा बांटने के लिए गांव में ही आ गए। बाढ़ के दौरान ही जो लोग शहर पहुंच सके थे उन्हें ऑफिसों में ही खुले दिल से मुआवजा बांट दिया गया था। बाबू रजिस्टर खोल कर नाम पुकारता और पीड़ित आगे बढ़कर अपना मुआवजा ले जाता। मुआवजा लेने वालों की भीड़ लगी थी। सब अपने अपने नाम की इंतजारी में थे। जैसे जैसे काम निपटने लगा, भीड़ के बीच खड़ी बुढ़िया की धडकनें बढ़ने लगीं। कई दिनों से कुछ न खाने के कारण पीला पला उसका चेहरा बाबू से बात करने के लिए तमतमाने लगा था। वह बड़ी उम्मीद से अपने नाम की इंतजारी कर रही थी। सब निपट गए... लोग अपने अपने घरों को लौट गए। अकेले खड़ी बुढ़िया को देख बाबू ने पूछा... ऐ क्या नाम है।सरबतिया...
बाबू ने रजिस्टर के पन्ने पलटते हुए पूछा- पति का नाम...
बुढ़िया ने शरमाते हुए बताया- लछमन...
बाबू ने पूरा रजिस्टर पलट दिया, लेकिन इस तरह के नाम का कोई पीडित उसे नहीं मिला, फिर बाबू ने पिछले पन्ने भी खंगाल दिए। एक जगह पर पेन लगाकर वोह रुक गया -अरे तेरे मरे का मुआवजा तो तेरा बेटा शहर आकर ही ले जा चुका है...पूरे पांच हजार रुपए मिले उसें... जा भाग यहां से... तू तो कागजों में मर चुकी है...बुढ़िया बाबू की बातों को हैरानी से सुन रही थी। उसकी जुबान तालू से चिपक गई, बिना कुछ बोले ही वह चुपचाप वापस लौट गई...शायद अपनी कोख को गाली दे रही थी...
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
काट डालो सारे बांस
तपन
08954024571