शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

योजना
बरसात का मौसम बीते छह महीने हो गए, सरकार बाढ़ से प्रभावितों की मदद के आंकड़े प्रचारित करने में लगी थी। प्रदेश के गृह सचिव अधिकारियों की बैठक ली।विकास योजनाओं के पूरा न होने से उनका गुस्सा सातवें आसामान पर था। जिलाधीशों को फाइनली आदेश दिया- समाज के आखिरी व्यक्ति तक योजनाओं का लाभ पहुंचाने के हर संभव प्रयास किए जाएं। बैठक समाप्त हुई। जिलाधिकारियों ने अपने-अपने जिलों में पहुंच कर उपमंडलाधिकारियों की बैठकें बुलाई। सरकारी विकास योजनाओं को समाज के अंतिम आदमी तक पहुचाने के निर्देश जारी कर दिए गए। एसडीएम भी अपने कार्यालय में दो घंटे तक तहसीलदार, पटवारियों की बैठक कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास योजनाओं का लाभ पहुंचाने की रणनीति बनाने में लगे रहे। बाहर दरवाजे पर बरसात से हुए नुकसान की राहत पाने के लिए इतवारु दो घंटे से साहब के द्वार पाल से एसडीएम साहब से मिलने देने की मन्नतें करता रहा। साहब के बैठक में व्यस्त होने के कारण वह एक बार फिर बिना राहत लिए वापस लौट गया....अंदर बैठक में समाज के अंतिम व्यक्ति की खोज जारी थी।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

प्री मेच्योर बच्चे का इंटरनेट युग में एक्सटेंशन
वक्त के साथ बहने वाले भले ही अधिसंख्य हों, लेकिन अपने ही जमाने और दुनिया में जी रहे इक्के-दुक्के लोग आज भी भीड़ का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। ऐसे ही एक शख्श से मेरी मुलाकात हुई लगभग आठ साल पहले। नाम था रत्न चंद निर्झर। नाम अच्छा सा लगा सो कुछ लंबी बातचीत भी की। यह उस वक्त की बात है जब मैं दैनिक भास्कर में हिमाचल प्रदेश के सोलन ब्यूरो कार्यालय का प्रमुख था। निर्झर से मुलाकात हुई, कुछ रुचिकर और अरुचिकर दोनों ही विषयों पर चर्चाएं हुईं। मैं पहली ही मुलाकात में ताड़ गया कि इस व्यक्ति के भीतर साहित्य का एक निरंतर बहता हुआ झरना झरता है। खैर निर्झर जी गए तो साथियों ने चेतावनी दी कि इस व्यक्ति के साथ ज्यादा रहे तो यह आपसे ही चिपक जाएगा। मैंने अनुसुनी कर दी, लेकिन एक खिंचाव सा लगा था उनकी सादगी और बातों में। दुनिया जहान से दूर वे कभी राहुल सांकृत्यायन की बात करते तो लगता उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं, फिर अचानक प्रेमचंद पर आ जाते। उनसे पहली मुलाकात इस लिहाज से भी अच्छी कही जा सकती है कि उन्होंने इससे पहले मेरा नाम सुन रखा था। बस इतनी सी जान पहचान को उन्होंने इस अंदाज में प्रस्तुत किया कि जैसे बहुत पुराना संबंध हो। जो भी हो साथियों की चेतावनी का मुझ पर असर जरूर पड़ा, लेकिन यह डर चौबीस घंटे में ही प्राण त्याग गया। अगले दिन सोलन के माल पर टहलते हुए निर्झर से फिर सामना हो गया। उन्होंने एक दिन पुरानी मुलाकात की औपचारिकता को ताक पर रखते हुए सीधे ही हमला बोल दिया: क्यों चोरों कहां घूम रहे हो.... कई लोगों के सामने जब उन्होंने इस तरह संबोधित किया तो साथियों की चेतावनी मेरे कान के पर्दों पर टकराने लगी। वह सितंबर महीने के अंतिम दिन थे। खैर उन्होंने काफी हाऊस में चाय पीने के लिए कहा तो मैं किसी जादू से बंधा उनके पीछे हो लिया। चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने बताया कि काफी हाऊस के स्वामी भी गढ़वाल से ही हैं, उन्होंने बाद में उनसे परिचय भी कराया, यह अलग बात है कि मेरी उनसे पहली मुलाकात ही इतनी जोश भरी नहीं रही कि दोबारा हाय हैलो से आगे बढ़ पाती। खैर निर्झर ने उस दिन बताया था कि दो अक्तूबर को वे उपवास रखते हैं। मैंने समझा कोई व्रत या त्योहार आता होगा सो पूछ लियाः किस खुशी में!
उन्होंने बताया कि उस दिन लाल बहादुर शास्त्री जी का भी जन्मदिन होता है और इस दिन वे पिछले तीस सालों से व्रत रखते आ रहे हैं। यह जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा का समंदर हिलोरे मारने लगा। यह मेरे लिए चौकाने के वक्त था, लेकिन उन्होंने यह असाधारण सी बात इतने साधारण लहजे में कही थी, कि मेरा चेहरा भावों को लेकर गच्चा खा गया। आज के समय में जब आदमी छोटी छोटी बातों को लेकर अपने पुरखों को कोसने लगता है तब लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिन पर उपवास रखना अपने आप में सुखद आश्चर्य ही कहा जाएगा। बातचीत तो उस दिन उनसे काफी हुई, लेकिन मैं उपवास की उस जानकारी से बाहर निकल ही नहीं सका। मेरा मन बार बार उन्हें सेल्यूट करने का कर रहा था, लेकिन वे ठहरे निर्झर.....
इत्तेफाक से मुझे कमरा भी उनसे करीब पचास कदम पहले ही मिल गया, फिर क्या था वे बच्चों को पढ़ाने के बाद देर रात मेरे कमरे पर आ जाते़..... हाथ में रेडियो, कंधे पर थैला और थैले में दैनिक अजीत से अंग्रेजी ट्रिब्यून तक कई छोटे और बड़े समाचार पत्र। साहित्य पर उनकी जानकारी मुझे सोचने पर विवश कर देती।
घूमने के मामले में निर्झर का कोई सानी नहीं। वे पैदल-पैदल कई किलो मीटर का सफर आज भी तय कर जाते हैं। मुझे याद है एक दिन वे मेरे घर देहरादून आए। मुझे भी वापस लौटना था सो मैं भी उनके साथ चल दिया। उन्होंने कहा कि देहरादून के प्रिंस चैक की ओर से आईएसबीटी जाएगें, मैं फंस गया, इसके बाद उन्होंने किसी भी आटो को मुझे हाथ ही नहीं देने दिया, रात लगभग दस बजे हमने प्रिंस चौक से आईएसबीटी का पैदल सफर तय किया। मैं गाड़ी की बात करता तो वे हाथ में पकड़ी मूंगफली की थैली मेरी ओर बढ़ा देते। बस मूंगफली खाते- खाते सात आठ किमी का सफर उन्होंने मुझसे पैदल ही तय कराया। इसके बाद से मैंने उनके साथ पैदल चलने के प्रस्ताव को किसी न किसी बहाने टाल ही दिया।
एक बार तो उनके साथ के चक्कर में मेरे एक साथी के परिवार में कलह ही हो गया। सोलन में नौणी नामक स्थान पर कृषी एवं बागवानी विश्वविद्यालय है, उसके जन संपर्क अधिकारी थे पीडी भारद्वाज। उनकी तबीयत नासाज होने की जानकारी हमें निर्झर जी के माध्यम से मिली। उन्हें देखने जाना था सो हमने दैनिक भास्कर के उप संपादक यशपाल कपूर को साथ ले सुबह दस बजे से पहले उनके घर पहुंचने की ठानी। निर्झर ने हमें आश्वासन दिया कि पैदल बिल्कुल नहीं जाएगें और जल्दी ही वापस लौट आएगें। कपूर जी की धर्म पत्नी के दांतों में दर्द था सो उन्होंने वापस लौट कर डॉक्टर के पास जाने का कार्यक्रम धर्मपत्नी के साथ तय कर लिया। हम तीनों भारद्वाज जी के घर पहुंचे, उनके साथ कुछ समय बिताया और फिर वापस निकलने लगे कि निर्झर का पैदल चलने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। उन्होंने हमें पहाड़ का रास्ता बताते हुए कहा कि इस रास्ते हम सड़क तक बहुत जल्दी पहुंच जाएंगे। हम उनके झांसे में आ गए। निर्झर के पीछे पीछे चलते हुए हम लगभग आधा घंटे बाद सड़क पर तो पहुंचे, लेकिन वहां बस स्टॉप न होने के कारण सोलन तक का सफर भी पैदल करने की नौबत आ गई। इधर कपूर साहब की पत्नी के फोन पर फोन और उधर निर्झर जी की पैदल यात्रा। कपूर साहब थे भी थोड़े रंगीन तबीयत के आदमी सो अपने ही साथ काम करने वाले सुखदर्शन ठाकुर के घर उनके खिलाफ मजाक मजाक में कुछ ऐसा बोल आए थे कि बेचारे ठाकुर जी की तबीयत बिगड़ गई। तब से सुखदर्शन उनसे बदला लेने की सोचा करते। कपूर साहब की पत्नी को वे दीदी कहा करते सो अचानक उनके घर फोन किया और कपूर साहब की पत्नी ने अपने दांत की पीड़ा से लेकर कपूर साहब के अब तक न आने का किस्सा सुना दिया। फिर क्या था ठाकुर के दिमाग में घंटी बज गई, उन्होंने कपूर साहब की धर्मपत्नी को मनगढंत कहानी सुना कर उनके दिमाग में बिठा दिया कि कपूर साहब अपनी महिला मित्रों के साथ किसी और दिशा में भटकते देखे गए हैं। अब क्या था भाभी, कपूर साहब को जल्दी आने के लिए कहें और हमारी यात्रा खत्म ही न हो। दोपहर को हारे थके घर पहुंचे तो बीमार भाभी ने कपूर साहब की ठीक खबर ली, उनसे यह साबित करते नहीं बना कि वे भारद्वाज जी को देखने हमारे साथ गए थे। सुना है पूरा दिन घर पर तनाव रहा। निर्झर ने यह सुना तो बहुत हंसे।

निर्झर न तो आज के समय के साथ चल सकते हैं न इस काल के लिए बने थे, सही मायने में उम्र के लगभग 51 साल बिता चुका यह शख्स आज के ई-मेल युग में चिठ्ठीपत्री युग का एक्सटेंशन है। जो आधुनिकता को अपनाना ही नहीं चाहता। उससे दूर भागता है। देश का कोई ही प्रदेश होगा जहां उनके पत्र मित्र न हों। कुछ तो ऐसे भी है जो हिंदी नहीं जानते लेकिन मित्रता की भाषा को उन्होंने भी समझा। मेरे नालागढ़ जाने के बाद उनसे मुलाकातों का सिलसिला टूट गया। कई दिनों से उनका मोबाइल फोन भी स्विच आफ था। एक दिन अखबारों में खबर पढ़ कर झटका लगा। लिखा था कि सोलन के रत्न चंद निर्झर नामक एक व्यक्ति ने चिठ्ठी पत्रियों का चलन बंद ही हो जाने के चलते अपना मोबाईल फोन बेच दिया है। वे चाहते है कि लोग चिठ्ठियां लिखने की पुरानी परिपाटी को न छोड़ें और कम से कम उन्हें तो चिठ्ठी ही लिखें। मुंह से वाह और आह दोनों साथ ही निकले थे। कई महीनों बाद हमने मन्नतें करके उनसे दोबारा मोबाईल फोन खरीदवाया था, जिसे उन्होंने शायद अब तक नहीं बेचा... कौन जाने फिर सनक चढ़े और फेंक दें।
सोलन में रहते हुए राहुल सांकृत्यायन जन्मदिवस, मुंशी प्रेमचंद जयंती उनकी ही प्रेरणा से हम जोरदार ढंग से मनाते। पर्चे पढ़ने के लिए साहित्यकार मिल ही जाते, कवियों के लिए तो सोलन की भूमि वैसे भी काफी उर्वरा रही है। निर्झर हमेशा कहते हमारे कवि एक कविता को दस दस सालों से सुनाए जा रहे हैं। इस मामले में मैंने निर्झर में एक इमानदारी देखी, वे यदि नई कविता नहीं लिख सके तो कवि सम्मेलन के मंच पर कविता नहीं सुनाते। माफी मांग लेते। काफी फरमाइशों के बाद वे कभी सुनाते तो अपनी वर्षों पहले लिखी खिंद कविता सुनाते। इस कविता को सुनाते हुए निर्झर भावों में बहने लगते हैं। खिंद माने गुदड़ी...... के ताने बाने को खोलती मां और हर ताने का परिचय देते निर्झर के शब्द, उनकी आँखें छलछला जातीं और सुनने वाले निशब्द पूरी कविता को सुनते। सुना है अब खिंद पर दिल्ली में किसी यूनिवर्सिटी में शोध हो रहा है।
सच्चाई का साथ छोड़ना उन्हें नहीं भाता। सोलन में रहते हमारी मित्रता हिमाचल पुलिस के युवा आईपीएस अधिकारी ज्ञानेश्वर सिंह से हो गई। वे भी निर्झर को बहुत सम्मान देते। हमें पता चला कि 28 नवंबर को निर्झर का जन्मदिन है, मैने ही आयडिया दिया कि इस बार उनका जन्मदिन मनाया जाए। एसपी साहब बोले 27 को रविवार है, समय का सदुपयोग भी हो जाएगा, फिर लोग थोड़े ही पूछेंगे कि जन्मतिथी क्या है। सुखदर्शन, पंडित संतराम जी, कपूर साहब आदि सब राजी हो गए पर निर्झर को कौन मनाए। खैर वे कार्यक्रम में आने पर इस शर्त पर राजी हुए कि कार्यक्रम में केक नहीं कटेगा, वे सब को अपने घर से बना कर लाए गए अरबी के पत्तों के पत्योड़ खिलाएगें और कार्यक्रम में कवि सम्मेलन होगा। एसपी साहब ने पुलिस लाईन के सभागार में कवि गोष्ठी का इंतजाम करा दिया। स्थानीय कवि बुला लिए गए, पुलिसकर्मी भी कवि सम्मेलन सुनने पहुंचे। निर्झर से पहले आने वाले हर कवि ने उन्हें जन्मदिन की मुबारकबाद दी। जब निर्झर की बारी आई तो उन्होंने रहस्य से पर्दा उठाया कि दरअसल उनका जन्मदिन आज यानी 27 को नहीं बल्कि 28 नवंबर को है। यह सुनकर मैं एसपी साहब का मुंह देखूं और वे मेरा। हम समझ नहीं पा रहे थे कि यह बताने की निर्झर को क्या आवश्यकता थी....पर सच शायद उन्हें कचोट रहा था। बाद के कवियों ने उन्हें प्री मेच्योर बच्चा कह कर तंज भी कसे। पर निर्झर सच बता कर खुश थे।

उन्हें पढ़ने का शौक है और लोगों को पढ़ाने में उन्हें असीम आनंद की अनुभूति होती है। अक्सर मेरे पास वे देश के कोने -कोने से नव प्रकाशित पत्रिकाओं को लेकर पहुंच जाते। निर्धारित मूल्य लेकर किताबें मुझे पढ़ने के लिए देते। उन्हें खबर मिलनी चाहिए कि नई पत्रिका प्रकाशित हुई है। वे दस या बीस कापियों का मूल्य डाक से लेखक को भेजेंगे और उन किताबों को एक -एक करके पाठकों तक पहुंचाएंगे।
एसपी साहब के द्वारपाल कैसे सकते हैं बताने की जरूरत नहीं। निर्झर जी का फोन आया तो परेशान थे: बोले पता नहीं ज्ञानेश्वर जी को किताबें मिली भी होंगी या नहीं। मैंने पूछा आप दे कर तो आए हैं। वे बोले... यार गया तो था उनसे मिल कर उन्हें किताबें देने.... पर दरवाजे से पुलिस वाले ने अंदर ही नहीं जाने दिया, डर के मारे उसके पास ही किताबें छोड़ आया। खैर वे किताबें ज्ञानेश्वर सिंह जी तक पहुंची पर उन्हें यह पता नहीं चला कि उन्हें कौन छोड़ गया। जब मैंने बताया तो वे बहुत हंसे। उसके बाद उन्होंने निर्झर जी को बुलाया, स्वयं दरवाजे पर खड़े होकर उनका इंतजार किया और निर्झर से अपने द्वारपाल को विशेष रूप से मिलवाया तथा अगली बार से बिना टोके अंदर भेजने की हिदायत दी।
निर्झर हैं ही ऐसे कि पुलिस वाले उनके भीतर छिपी खासियतों को कैसे पहचाने। बड़ी खिचड़ी दाड़ी, कई बार तो महीनों महीनों शेव नहीं करते। एक बार तो उसी हालत में मेरे घर देहरादून पहुंच गए। अब तो लगता है कुछ सुधार हुआ है। सब धर्मपत्नी का प्रताप है। धर्मपत्नी की बात चली तो बता दें कि निर्झर ठहरे फक्कड़ टाइप, शादी व्याह के सामाजिक बंधनों से कोसों दूर, उम्र बढ़ती जा रही थी शादी की कोई फिक्र नहीं। एक मित्र थे अरूण डोगरा....इन दिनों दैनिक जागरण के बिलासपुर प्रभारी हैं। डोगरा जी और दूसरे मित्रों के समझाने बुझाने पर शादी के लिए राजी हुए। लोक निर्माण विभाग में नई नई नौकरी लगी थी सो अंग्रेजी ट्रिब्यून में वैवाहिक विज्ञापन प्रकाशित कराया गया। लगभग एक महीने बाद अखबार ने सभी पत्र उनके पते पर भेज दिए। लगभग डेढ सौ पत्र रहे होंगे। मित्रों की ज्यूरी बैठी। लंबे सोच विचार के बाद आईजीएमसी शिमला में एक नर्स के प्रस्ताव को पसंद किया गया। दिए गए पते पर निर्झर जी की स्वीकृति भेज दी गई। तकरीबन पंद्रह दिन बाद जवाब आया। पत्र पढ़ कर पूरी ज्यूरी ने माथा पीट लिया। लिखा था... आदरणीय भाई साहब प्रणाम.....आपके आशीर्वाद से मैंने यहीं काम करने वाले एक चिकित्सक से विवाह करने का फैसला किया है। फलां तिथी को विवाह है आप छोटी बहन समझ कर आशीर्वाद देने अवश्य पहुंचें....।

निर्झर जी फिर कुंवारे रह गए। उन्हें अपने कुवांरत्व की इतनी चिंता नहीं थी जितनी अरुण डोगरा सरीखे दोस्तों को थी। अंततः अरुण की पत्नी की बड़ी बहन से निर्झर से विवाह हुआ, और दो जुड़वा बेटों समेत तीन बेटा बेटी हैं। भाभी की शक्ल हूबहू अपनी छोटी बहन से मिलती है। खैर यह पारीवारिक मामला है....निर्झर पारीवारिक होते हुए आज भी बंधनों से नहीं बंधे। यदा-कदा थैला-रेडियो उठा कर निकल पड़ने के लिए मचल उठते हैं। उनके थैले में अखबार और पत्रिकाओं के अलावा एक अदद टार्च और दैनिक आवश्यकताओं का सारा सामान मिल जाएगा।
जम्मू कश्मीर में चुनाव थे, चुनाव ड्यूटी के लिए ऐसे कर्मचारियों की आवश्यकता थी जो ऊर्दू जानते हों। हिमाचल में पांच सात लोग ही ऐसे थे जो इस अनिवार्य शर्त को पूरा कर सकते थे, लेकिन जम्मू-कश्मीर में मौत के मुंह में जाए कौन, सो सबने बहाने बना लिए। एक मात्र आवेदन गया निर्झर का। मैंने पूछा- पहले तो खतरे के बीच आप क्योंकर जाएगें दूसरे ऊर्दू कहां से सीखेंगे। तब उन्होंने राज खोला कि उन्हें ऊर्दू पढ़नी और लिखनी दोनों आती हैं। दूसरे मौत उनको आती है जो डरते हैं मैं तो कश्मीर को समझने के लिए जाना चाहता हूं...वहां के लोगों से मिलूंगा, संस्कृति समझूंगा आदि आदि.... इसके बाद उन्होंने कुछ दिन सरकारी प्रशिक्षण भी लिया, लेकिन दुर्भाग्यवश चुनाव में उनकी आवश्यकता नहीं पड़ी और निर्झर की मन की बात मन में ही रह गई। जो भी हो निर्झर का जन्मदिन अब हर साल मनाया जाता है, उस दिन साहित्यकारों पत्रकारों को भोज दिया जाता है। कवि गोष्ठी होती है साहित्य चर्चा होती है। अरुण इस कार्यक्रम की तीन सालों से व्यवस्था करते हैं। इस बार मैं भी शरीक हुआ था कार्यक्रम में। शिमला से मधुकर भारती जी, द्विजेंद्र द्विज, कृष्णचंद महादेविया और हिमाचल पत्रकार संघ के अध्यक्ष जयकुमार आदि शामिल हुए। मैं तो देरी से पहुंचा पर सबने बताया कि खूब आनंद के साथ मनाया गया निर्झर का जन्मदिन। निर्झर ने अपनी उम्र सबको बिरले अंदाज में बताई; वे बोले: मैं और कादंबनी हम उम्र हैं। कादंबनी का प्रकाशन 1960में शुरू हुआ और इनका जन्म भी उसी वर्ष का है।
जब उनकी नई नई नौकरी लगी तब हिमाचल के मुख्यमंत्री होते थे वीरभद्र सिंह। सिंह कर्मचारियों के दूरस्थ इलाकों में जाने में दिए जाने वाले बहानों से परेशान थे। निर्झर उनके आवास पर पहुंचे तो मुख्यमंत्री ने आने का कारण पूछा। निर्झर ने बता दिया कि स्थानांतरण करवाना चाहते हैं। इस पर वीरभद्र सिंह ने निर्झर को खूब खरी खोटी सुनाई, लेकिन जब प्रार्थनापत्र देखा तो उनकी आखें फटी रह गई। मंडी जिले के मैदानी क्षेत्र का रहने वाला यह लड़का अपना स्थानांतरण हिमाचल के दूरस्थ क्षेत्र पांगी में करवाना चाहता है। ताकि वहां के लोगों व कल्चर को समझ सके। आवेदन पत्र पढ़ कर मुख्यमंत्री ने निर्झर की सबके सामने जमकर सराहना की।
हमारी परंपरा है कि जो लोग हमारे बीच नहीं है हम उनकी स्मृति में आयोजन करते हैं। उन्हें मरणोपरांत सम्मानित करते हैं, लेकिन जीते जी उसे कोई भाव नहीं देते। निर्झर जैसे लोग दो युगों के बीच सेतु की तरह हैं। जो हजारों लाखों में बिरले ही होते हैं। इसलिए उन्हें मान व उनकी भावनाओं को सम्मान देना हमारा दायित्व है। ईश्वर करे उनका एक्सटेशन और एक्सटेंड हो जाए। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उनसे जुड़ कर उनके माध्यम से पिछले युग को सझ सकें। आप भी उनसे बात करके उनसे मित्रता करना चाहे तो यह नंबर नोट कर लें -09459773121.... न मालूम कब निर्झर को सनक चढ़े और वह अपने मि़त्रों को सिर्फ पत्र व्यवहार करने क फरमान सुना दें।