मंगलवार, 14 सितंबर 2010
क्या की जे
किसी की याद सताए तो भला क्या की जे।।
वो बेवफा है बेरुखा है दगाबाज है बहुत,
पर ये दिल उसको ही चाहे तो भला क्या की जे।।
मित्रों बिस्तर की सलवटों को प्रयोग मित्रों ने अब तक बेचैनी को जाहिर करने के लिए किया है, यहां नया उपयोग देखें....
अर्ज किया है.....
अजीब रात है करवटों में कटी जाती है,
सलवटें बिस्तर पर न आए तो भला क्या की जे।
देश के हालात बिगड़ रहे हैं या सुधर रहे हैं यह तो दावे के साथ हमारे नीति निर्धारक भी नहीं कर सकते...
देखें
ढकने के लिए लोग को कपड़ा नहीं नसीब।
विकास दर आकाश में जाए तो भला क्या की जे।
और अंत में
सौ-सौ की दिहाड़ी में सौ दिनों का रोजगार।
सांसद अस्सी हजार पाएं तो भला क्या की जे।।
रविवार, 12 सितंबर 2010
प्रतिशोध
परसाठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ।
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ ।
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन,
इसीलिये लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फ़र्ख न पड़ेगा कोई फिर भी,
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ॥
मंगलवार, 7 सितंबर 2010
नानी एक कहानी कह
सबकी है जब अपनी रातें
नींद नहीं क्यों आनी कह...
कैसी मस्जिद कैसा मंदर
सबके लिए है एक समंदर
फिर क्यों झांसे में आ जाती
अब झांसी की रानी कह...
बोझ जमाने भर का लादे
चश्मे चढ़ते आखों पर
क्यों पन्नों में ही खो गई
बच्चों की शैतानी कह...
फूलों सी रंगत चहेरों की
कितने बरस हो गए देखी थी
फीके चेहरे, रूखी बातें
क्यों बेरंग जवानी कह...
क्यों रोते हैं बच्चे जग कर
रात-रात को नींदों से
तेरी कहानी से गायब हैं
क्यों राजा और रानी कह...
शनिवार, 4 सितंबर 2010
अपने घर के आंगन में
जैसे सांप छिपा ले भइया अपने घर के आंगन में।
रोज-रोज की पत्थरबाजी से अब तू घबराता है,
पाकिस्तान बसाले भइया अपने घर के आंगन में।
कंधा देने को मुर्दे को मिलते हैं अब लोग कहां,
खुद की चिता सजा ले भइया अपने घर के आंगन में।
खेल-खेल में नोट छापना कलमाड़ी से सीख जरा,
एक आयोजन करवा ले भइया अपने घर के आंगन में।
गुलेल से निकले एक कंकड ने आंख फोड दी बच्चे की,
और आम उगाले भइया अपने घर के आंगन में।
तूने मां-बाप को पीटा तेरा बेटा देख रहा,
इक कुटिया बनवाले भइया अपने घर के आंगन में।
रविवार, 29 अगस्त 2010
आओ न कुछ बात करें

शनिवार, 28 अगस्त 2010
इधर भी प्रोब्लम है भाई
कहानी लिखने से पहले कुछ शेरों पर नजर दौड़ा लें और मजा लें
कि जिनमें डूब गए थे हम वही मंझधार
गया तूफान तो देखा वो किनारे निकले।।
जिनपे उम्मीद थी ले जाएगें नदी पार हमें,
मगर जब निकले तो वे मेरे सहारे निकले।।
जिनके इश्क के चर्चे सुने थे घर-घर में,
मिले हमसे तो या खुदा वो कुंवारे निकले।।
हमें तो खौफ था गैरों पे डर झूठा निकला,
कि हमें मारा जिन्होंने वो हमारे निकले।।
सोमवार, 23 अगस्त 2010
तुम आओगे न... गिर्दा

65 साल की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती और तुम इतनी ही लिखा लाए। पर जितना भी जिए शानदार जिए। तुम गिर्दा नहीं एक कहानी थे... एक अनवरत कहानी जिसका कोई अंत नहीं... बस आरंभ था। तुम्हे क्या लगता है कि तुमने जिंदगी के इन 65 सालों में अपनी जिंदगी जी। नहीं तुम एक युग जी गए... गिर्दा....। वो युग जो अब पहाड़ पर फिर लौट कर नहीं आएगा। क्या आदमी थे रे तुम... ठेठ पहाड़ी जीवन... वहीं ठसक ...वहीं कसक ... डटे रहने की रणभूमि में.... पहाड़ की तरह। मां पिता ने गिरीश नाम दिया... तुम्हे शायद जंचा नहीं सो गिर्दा हो गए। पूरी दुनिया के लिए ...गिर्दा... यानी गिरीश दा...। दादा यानी बड़ा भाई जो छोटों को हर गलती पर प्यार भरी डांट पिलाता है। पुचकारता है और फिर गलती न करने की नसीहत देता है।
सारा पानी चूस रहे हो , नदी संमदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर कन्कड़ पत्थर कूट रहे हो।।
महल चौबारे बह जाएगें, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूँद बूंद को तरसोगे जब
बोल व्यापारी तब क्या होगा।नगद उधारी तब क्या होगा।।
गिर्दा.... नाम के अलावा तुमने और क्या लिया दुनिया से और दिया क्या- क्या... शायद तुमने इस पर गौर ही नहीं किया। तुम तो पहाड़ थे। तुम्हें क्या पता हीरे क्या हैं और जवाहरात क्या। तुम तो बस उगले जा रहे थे। बेजान शब्दों को जान देते हुए ...शब्द ...शब्द...अहा हीरे ...जवाहरात।तुम्हारा जाना एक चोट दे गया उन एक करोड़ उत्तराखण्डियों को जो तुम्हारे गीत गा-गा कर अलग राज्य के नागरिक बन गए। यह अजीब जज्बा तुमने ही तो भरा था उनके भीतर गाते गाते लडऩे का ... अजीब है न... पर यह किया तुमने ही...।मेरे जैसे कितने ही हैं जो तुम्हें साक्षात न देख सके लेकिन तुम्हें तुम्हारे गीतों, जन गीतों से जानते हैं। उन सबमें तुम जिंदा हो गिर्दा.... हमें लगता है कि तुम मिटे नहीं तुम चले गए हो कुछ समय के लिए और फिर लौटोगे ... गाते हुए ...
चलो रे नदी तट पार चलो रे...बहता पानी, चलता जीवन, थमा के हाहाकार चलो रे...
तुम गए नहीं गिर्दा यहीं ...कहीं हो... बस ओझल से हो... जब भी परेशान होंगे... तुम्हारे जन गीतों से ही पुकारेगे तुम्हें ... तुम आओगे न...क्योकि अभी लडऩी हैं हमने लंबी लड़ाई...तुम दोगे न साथ पहले की तरह... इस बार भी...
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
एक और राजधानी
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
गुलामी
साहब सब हो जाएगा ...आप चिंता न करें... पर साब एक बात बतानी थी पिछले साल के तीन सौ रुपए अभी तक मजदूरों को नहीं दिए हैं।
यार तुम लोग एक एक पैसे के लिए मरते हो... तीन सौ रुपए एक साल से याद है तुझे... यहां इतना काम पड़ा है तू तीन सौ रुपल्ली के लिए रो रहा है... इस बार दूसरे मजदूर ले कर आना... उन्हें काम धाम कुछ नहीं आता...रुपए लेने के लिए चले आते हैं...साले
ठीक है साब...पर मजदूर सौ रुपए दिहाड़ी से नीचे नहीं मानते।
सौ रुपए...यह तो मजदूरी नहीं ब्लैक मेलिंग है...उन्हें 75 रुपए के हिसाब से देना और बिल मुझे दिखा कर बनाना...बाद में हिसाब ने बिगड़ जाए
साब 75 रुपए में तो नहीं हो सकेगा...तो फिर क्या पूरा खजाना खोल दूं उनके लिए...काम ही कितना है...करना है तो करें
ठीक है साब मैं अपने बच्चों को ही काम पर लगा लूंगा...पर साब पिछले साले के तीन सौ रुपए तो मिल जाएगें न
ठीक है तू अपने बच्चों को लगाएगा तो डेढ सौ रुपए ले जा...पिछला हिसाब बराबर।ठीक है साब...
बुधवार, 11 अगस्त 2010
कोख
बाढ़ का पानी उतरा तो सरकारी बाबू अपने ऑफिसों से निकल कर मुआवजा बांटने के लिए गांव में ही आ गए। बाढ़ के दौरान ही जो लोग शहर पहुंच सके थे उन्हें ऑफिसों में ही खुले दिल से मुआवजा बांट दिया गया था। बाबू रजिस्टर खोल कर नाम पुकारता और पीड़ित आगे बढ़कर अपना मुआवजा ले जाता। मुआवजा लेने वालों की भीड़ लगी थी। सब अपने अपने नाम की इंतजारी में थे। जैसे जैसे काम निपटने लगा, भीड़ के बीच खड़ी बुढ़िया की धडकनें बढ़ने लगीं। कई दिनों से कुछ न खाने के कारण पीला पला उसका चेहरा बाबू से बात करने के लिए तमतमाने लगा था। वह बड़ी उम्मीद से अपने नाम की इंतजारी कर रही थी। सब निपट गए... लोग अपने अपने घरों को लौट गए। अकेले खड़ी बुढ़िया को देख बाबू ने पूछा... ऐ क्या नाम है।सरबतिया...
बाबू ने रजिस्टर के पन्ने पलटते हुए पूछा- पति का नाम...
बुढ़िया ने शरमाते हुए बताया- लछमन...
बाबू ने पूरा रजिस्टर पलट दिया, लेकिन इस तरह के नाम का कोई पीडित उसे नहीं मिला, फिर बाबू ने पिछले पन्ने भी खंगाल दिए। एक जगह पर पेन लगाकर वोह रुक गया -अरे तेरे मरे का मुआवजा तो तेरा बेटा शहर आकर ही ले जा चुका है...पूरे पांच हजार रुपए मिले उसें... जा भाग यहां से... तू तो कागजों में मर चुकी है...बुढ़िया बाबू की बातों को हैरानी से सुन रही थी। उसकी जुबान तालू से चिपक गई, बिना कुछ बोले ही वह चुपचाप वापस लौट गई...शायद अपनी कोख को गाली दे रही थी...
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
काट डालो सारे बांस
तपन
08954024571
रविवार, 18 जुलाई 2010
एक दिन शायद
जब सड़ी हवा में सांस लेने से
आदमी डरेगा नहीं।
एक दिन
जब पेट भरने के लिए आदमी
कुछ करेगा नहीं।।
एक दिन
जब रोज रोज की दौड भाग से
परेशान शख्श जल्दी नहीं जागेगा।
एक दिन
जब छोटा बड़ा काम करके भी
बाबू रिश्वत नहीं मांगेगा।।
एक दिन
जब फूल दुर्गन्ध के लिए नहीं
महक के लिए विख्यात होंगे।
एक दिन
जब अंजाने नाम भी प्रेमचंद और
रविन्द्र नाथ से प्रख्यात होंगे।।
एक दिन
जब धरती पत्थर नहीं सोना उगाएगी।
एक दिन
जब विरहनी संयोग के गीत गायेगी।।
एक दिन
जब मशीन और आदमी
की प्रतिद्वंदिता नहीं होगी।
एक दिन
जब नई पीढ़ी में विचारों की
स्वच्छंदता नहीं होगी।।
एक दिन
जब बादल बिजली की जगह
सोना बरसाएंगे।।
एक दिन
जब हम-तुम तालाब में नंगे नहाएगें।।
एक दिन
जब कबूतरों को बाज
नहीं डराएगा।
एक दिन
जब राजनेता सिर्फ रोटियां खाएगा।।
एक दिन
जब अफसरों को कुर्सियां
नहीं होगीं।
एक दिन
जब दफ्तरों में तख्तियां नहीं होगी।।
एक दिन
जब रात
दिन से नहीं डरेगी।
एक दिन जब जिन्दगी के
फैसले खाप नहीं करेगी।।
एक दिन
जब आस्तीन के सापों का
डर नहीं होगा।।
एक दिन जब न्यायालय में
डाकू का घर नहीं होगा।।
एक दिन
जब परधानमंत्री आवास में गेट
नहीं होगें।
एक दिन
जब मजदूरों पर धौंस जमाते
घन्ना सेठ नही होंगे।।
एक दिन
जब अहसानों को हम उम्र
भर नहीं भूलेंगें।
एक दिन
जब फेल हुए बच्चे फांसी
पर नहीं झूलेंगे
एक दिन
जब सबके बच्चे घी और रोटी
खाएगें।
एक दिन
जब हम कसाब को फांसी
पर लटकाएगें।।
एक दिन
जब पेडों से आंसू
नहीं झरेंगे।
एक दिन
जब ग्लेशियर नहीं गलेंगें।।
एक दिन
जब नेता अपने गांव
लौट कर आएगा।
एक दिन
जब वोटर बिन दारू
के वोट डालने जाएगा।।
एक दिन
जब न्याय पैसे से
न तौला जाएगा।
एक दिन
जब मजदूर भरपेट
रोटियां खाएगा।।
शायद उस दिन
हम आदमी से
इंसान बन जाएंगे।
शायद उस दिन
हम अपने संस्कार
कर्मों में दिखलायेंगे।।
शायद उस दिन देश में
राम राज्य आ जाए।
शायद उस दिन
कोई देवता इस देश को चलाए।।
शायद.....
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
धौनी की शादी में अब्दुल्ला दीवाने
कुछ चैनलों के स्टूडियो से अलग से मेहनत हो रही थी। रविवार की रात को फेरों के मुहर्त निकलवा लिए गए पंडितों से... उसी हिसाब से बाकी रस्में तय कर दी गईं। साढे 11 बजे हुए फेरे चैनलों ने साढे सात बजे ही निपटा दिए।यही नहीं पंडितों को बिठा दिया गया कैसे मुहर्त में हो रही है शादी... कितनी सफल होगी... बच्चों का योग... जोड़ी खुश रहेगी... बन पाएगी दोनों की.... और तलाक कब तक...। सभी सवालों के जबाब हाजिर।भाई-बहन लगातार तीन दिन तक खाना-पीना सब भूल गए। एक भाई लघुशंका को गए, तब तक विवाह की छतरी वाला आ गया। जल्दी बाजी में भाई की पेंट ही गीली हो गई। किन्नरों को पता चला वे भी आ गए नाच गाना शुरु... लाइव टेलीकास्ट मुफ्त में। जो भी हो इस शादी ने घोडी वाले, डीजे वाले, माला वाले तीनों के रेट बढ़ा दिए। वे छोटी-मोटी शादियों में तो जाएगें ही नहीं । आखिरी सुबह तक भाई लोग डटे रहे होटल के गेट पर । जंगल में झिंगुर भी बोलता तो झपकी लेती आंख खुल जाती भाई-बहन माइक टटोलने लगते।धौनी-साक्षी दिल्ली रवाना हुए तो हमारे भाई बंधुओं ने ढाबे पर चाय पी और अपने घरों की राह पकड़ी। बीबी ने फ्रिज में रखा दो दिन पुराना खाना गर्म करके खाने की प्लेट सरका दी। बच्चे पूछ रहे थे- पापा ...धौनी कैसा है... साक्षी सुन्दर है... न... क्या बताते कि हम तो तीन दिन से अब्दुल्ला बने हुए थे।
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
प्रतिशोध
साठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ.
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ ।
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन,
इसीलिये लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फ़र्ख न पड़ेगा कोई फिर भी,
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ॥
रविवार, 27 जून 2010
झंझावतों से लड़े
भिड़े,
मगर टूटे नहीं,
इसीलिए बूढा बरगद
खड़ा रहता है,
आपनी आन- बान और शान के साथ
हर बार कर देता है
ओनर किलिंग
अपनी मर्यादा की खातिर
मार देता है,
अपने ही बीज को
ताकि पैदा हो
अच्छी और बेहतर नस्ल
एक झटके में तोड़ देता है
बाधाएं,
किसी बान्ध की बाढ़ की तरह लड़ जाता है
पूरी सभ्यता से
अपनी इज्जत के लिए
और एक हम
यू के लिपितिस
उखड जाते हैं
बहते यौवानावेश में
कर देते हैं खून,
अपने ही खून का
चाची, भाभी या बहन
किसी भी रिश्ते का,
क्योंकि हम बरगद नहीं
यू के लिपितिस हैं,
सिर्फ
यू के लिपितिस
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
बैसाख में आई, बहुत प्यासी है घुघती

बैसाख महीने में घरों के आसपास घुघती की 'बास' को नई नवेली बहुओं के लिए उसके मायके से लाया गया सन्देश समझना हमारी भूल हो सकती है... दरअसल इस महीने में पहाड़ी घरों के आसपास आवाज़ लगाने वाली घुघती प्यास से ब्याकुल है। वह तो पिछले महीने लोगों के सन्देश इधर से उधर करती रही और लोगों ने उसके आशियानों में ही आग लगा दी... पहाड़ के जंगल इस समय धूं -धूं कर जल रहे हैं और घुघती सरीखे लाखों बेजुबान प्राणी जान बचाने के लिए इंसानों की शरण में पहुच रहे हैं.... तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना की तर्ज़ पर पहाड़वासियों ने इन निर्दोष प्राणियों के दर्द को समझा हैं और उनकी प्यास बुझाने के लिए लगभग ख़त्म हो चुकी परम्परा को जीवनदान दे दिया है। अब पहाड़ों की ओखलियों में पानी भर कर रखा जाता है। पानी के बर्तनों को घरों के आसपास रखा जाने लगा है ताकि इन बेजुबानों की प्यास बुझ सके।
पछियों को क्या चाहिए चोंच भर पानी और दो चार दाने लेकिन पर्वतराज हिमालय के घने जंगल अपने इन आश्रितों के पेट भरने की स्थिति में भी नहीं हैं। मजबूरन पछी आबादी की और हसरत भरी उडान भर रहे हैं। पहाड़ के लोगों ने भी अपने दुःख सुख के इन साथियों की बोली को दिल से समझा और उनके लिए दाना-पानी का जुगाड़ करने के प्रयास शुरू कर दिए। दरअसल इस मौसम में दावानल से जंगल दहक रहे हैं। जहाँ आग नहीं है वहां गर्मी ने पछियों का जीना दूभर कर दिया है। नतीजा घुघती और उसके साथ के पछी अब ऊँचे पहाड़ों पर स्थित आबादी वाले स्थानों की तलाश में निकल पड़े हैं। दुखद यह है कि यही मौसम पछियों के लिए प्रजनन कल होता है। आग ने पछियों के तिनका- तिनका जोड़ कर बनाये गए घोसलों को भी जला दिया है। कौन जाने उनमे उनकी नयी पीढीयाँ भी साँस ले रही हों। घुघती जैसे पछियों ने अपने हलकों को तर करने के लिए इंसानों कि मदद मांगी और कई जगह उन्हें निराश नहीं लौटना पड़ा। घिन्दुड़ी यानि गौरैया के लिए हस्त निर्मित घोसले बनाने वाले प्रतीक पंवार इस स्थिति कि दर्दनाक बताते हैं। हो सकता हैं कोई घुघती आपके आँगन में भी आपसे मदद कि गुहार लगाने के लिए आये... उसका एहतराम जरूर करना....उसे इंसानी सभ्यता के नाते पानी देना और दो चार दाने अनाज भी खिलाना...शायद जिंदा रही तो आपकी बेटी को उसकी ससुराल में जाकर अगले साल चैत के महीने में वह आपकी खैर खबर जरूर सुनाएगी... फिर मिलते हैं...छत और आंगन में जरूर देखना .......
न बासा घुघती चैत की, खुद लगीं च में म मैत की॥
या फिर
घुघती घुरौन लगी म्यार मैत की, बौडी बौडी ऐअग्ये रितु- रितु चैत की॥
इन दोनों गढ़वाली गीतों में दो चीजें समान हैं। एक घुघती दूसरा चैत का महीना। पुरानी कहानियों में घुघतियों के चैत के महीने में घरों के आँगन या छत पर घुरघुराने का मतलब नवविवाहिता को उसके मायके का सन्देश देनामाना जाता था। गढ़वाल और कुमाऊ में घुघती के माध्यम से विरह के दर्जनों गीत रचे गए हैं। इस तरह घुघती मानसिक रूप से उत्तराखंड के हर घर की सदस्य बन गयी... घुघती यानि प्यारी सी मासूम फाख्ता......
रविवार, 18 अप्रैल 2010
भक्ति में शक्ति


चार महीनों तक गंगा के १५ किलोमीटर तक बढ़ाये गए घाटों में शायद ही कोई दिन रहा हो जब भीड़ नहीं दिखी हो। हिमालय की कंदराओं में रहने वाले योगियों ने भी कुम्भ में डेरा डाले रखा। मेले की व्यवस्थाओं के लिए अंतिम दिन १३५ आई पी एस अधिकारी लगाये गए थे, उत्तराखंड की ८० प्रतिशत पुलिस जब कम पड़ गयी तो हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश की पुलिस, पी ऐ सी, आर ऐ ऍफ़ , आई टी बी पी, बी एस ऍफ़ के अलावा डॉग स्क्वाड्स, बम स्क़वाड्स के हजारों विशेषज्ञ तैनात किये गए थे। कुम्भ का अंतिम शाही स्नान निपट चुका है, लेकिन अभी मेला २८ अप्रैल तक चलेगा। लाखों लोग अभी भी मेले में आ रहे हैं। हालत यह हो गयी कि अंतिम शाही स्नान के दिन उत्तराखंड सरकार को पडौसी राज्यों से

कुम्भ मेले में शामिल होने के लिए लाखों कि संख्या में विदेशी मेहमानों ने भी हरिद्वार में डेरा डाला। कुछ तो साधु ही बन गए। गंगा में स्नान के बाद उनका उत्साह देखते ही बनता था। एक मात्र हिन्दू देश नेपाल से भी हजारों की तादाद में हरिद्वार ऋषिकेश पहुंचे।
बधाईयों के बीच तीन लावारिश लाशें
हरिद्वार के महाकुम्भ में अंतिम शाही स्नान के दिन हुई दुर्घटना के कारणों को लेकर उत्तराखंड सरकार में भ्रम की स्थिति है। सरकार इसे भगदड़ का नतीजा मानने को तैयार नहीं है। हो भी क्यों यदि सरकार यह मन लेती है तो दुनिया दे सामने उसके महाकुम्भ आयोज



photo by Virendra Negi
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
कहाँ खो गए घिन्दुडा -घिन्दुड़ी

एक वक्त था कि जब गाँव में माँ सुबह भात पकाने के लिए चावल साफ करती तो न जाने कितनी चिड़ियाएँ माँ के आसपास मंडराने लगतीं। बचपन में इन चिड़ियों को उनके असली नाम से ज्यादा हम घिन्दुडा घिन्दुड़ी नाम से ही जानते थे। उन्हें उड़ाने के लिए हम उनके पीछे भागते तो माँ कहती कि यह सबसे निर्दोष चिड़ियाएँ हैं इन्हें मत सताओ। हम माँ का कहना अनमने मन से मान तो लेते लेकिन एक न एक दिन उन्हें पकड़ने कि प्रतिज्ञा अवश्य हर डांट के बाद करते। कुछ बड़े हुए तो अक्ल ने साथ देना शुरू किया। पता चला हमारे घरों में बेफ़िक्र घूमने वाले घिन्दुडा घिन्दुड़ी इन्सान के साथ इतने घुलने मिलने वाले गिने चुने पंछियों में से एक है। उनसे दोस्ती करने का मन करने लगा। कभी कभी माँ के हाथ से चांवलों से निकलने वाले धानों को हम ले कर इन मासूम सी दिखने वाले पंछियों को हम स्वयं ही डाल देते.....घिन्दुडा -घिन्दुड़ी एक- एक धान के लिए आपस में लड़ते तो हमें बुरा लगता..माँ कहती कि पछी तुम्हारी तरह पढ़े किखे थोड़े ही हैं कि खाने के लिए न लड़ें। तब हमे लगता कि खाने के लिए भी कोई लड़ाई होती है भला.... हम तो यही मानते थे कि लड़ाई तो सिर्फ खिलौनों के लिए ही हो सकती है। सचमुच हम तब भी बच्चे थे।
मुझे याद है कि एक दिन एक घिन्दुड़ी को चांवल खिलाते हमने एक बर्तन में ढक्कन रख hकर बंद कर लिया। तब में नहीं जानता था कि मैंने क्या किया है....घिन्दुड़ी बर्तन से बाहर कि लिए पर फद्फदाती रही लेकिन हमें उसमे मजा आ रहा था...उसके साथ हर रोज आने वाला एक टांग वाला घिन्दुडा आज काफी दूर बैठा था. शायद वह हमसे डर गया था... माँ ने देखा तो सच में उस दिन बहुत डांट पड़ी थी. माँ ने डांट फटकार के बाद घिन्दुड़ी को छोड़ने का शासनादेश जारी कर दिया.... और हमने इस आदेश का पालन भी किया... पर उपरी मन से। अगले दिन हमने लंगड़े घिन्दुडा और घिन्दुड़ी को अपने घर के आँगन में नहीं देखा... कई बार माँ कि आँखें भी उन्हें तलाश करती दिखाई पड़तीं ......मैं अपराध बोध से परेशान हो गया। पहली बार लगा कि पंछी भी अपना विरोध दर्ज कर सकते हैं।
आज इस घटना को लगभग ३० साल हो गए हैं.....कल फिर माँ ने चांवल साफ किये, लेकिन चांवल से निकले धान को खाने के लिए कोई घिन्दुडा -घिन्दुड़ी नहीं आये.....माँ कि आँखें कल भी उनकी तलाश कर रहीं थीं। मैनें माँ से कौतुहलवश पूछा घिन्दुडा घिन्दुड़ी नहीं आते आजकल ? माँ ने उदास स्वर में बताया कि उन्होंने उन्हें सालों से नहीं देखा। अब तो बड़ी बड़ी चोंच वाली काली बदसूरत सी चिड़ियाएँ आतीं हैं और हाथ से खाने का सामान छीन जातीं हैं । आज अखबार की एक खबर पर नजर ठहर गयी। खबर थी की गौरेया के पुर्नवास के लिए लकड़ी के घरौंदे बांटे जा रहे हैं। मैं काफी देर सोचता रहा काश मैंने उस दिन गौरेया को न पकड़ा होता तो माँ को घिन्दुड़ी की तलाश न करनी पड़ती. यही गलती आज हमे भारी पड़ रही है.