शनिवार, 7 दिसंबर 2013

अब राहुल का क्या होगा


राहुल गांधी को 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कई चुनौतियां का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी में उनकी हैसियत औपचारिक तौर पर नंबर दो होने के बावजूद उनकी कई महत्वाकांक्षी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पाई हैं और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस राजनीतिक जमीन सिकुड़ती जा रही है। आज आए चुनाव नतीजे भी कुछ ऐसी ही कहानियां कह रहे हैं।
 विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने कई प्रयोग किए हैं। लेकिन आज उनके प्रयोगशाला में तैयार पौधों के फल भी खट्टे ही निकले। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कामयाबी नहीं मिली है, अब इसके बाद कांग्रेस का वह धड़ा मजबूत होगा जो राहुल गांधी के स्टाइल को 'कॉरपोरेट पॉलीटिक्सÓ करार देता है।
देश के चार अहम राज्यों-मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली के विधानसभा चुनावों का परिणाम राहुल के लिए इस समय सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखे जा रहे थे। तमाम सर्वे  कह रहे थे कि इन चार राज्यों में कांग्रेस कम से कम तीन राज्यों में सीधे तौर पर हार सकती है। हालांकि, सर्वे के नतीजे कई बार गलत भी निकलते हैं, लेकिन इन राज्यों से मिल रहे संकेत किसी कांग्रेसी को परेशान करने के लिए काफी थे। राहुल गांधी के लिए इन राज्यों विधानसभा चुनाव उतने ही महत्व रखते हैं, जितनी अहमियत 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की थी। चार अहम राज्यों में अगर राहुल दो में भी कांग्रेस को जीत दिलवाने में कामयाब रहते तो उनका रुतबा बढ़ता, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।
कांग्रेस के उपाध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी ने कांग्रेस में संगठन से लेकर टिकट बंटवारे के तौर तरीकों में कई बड़े बदलाव करने की कोशिश की है। इसे कई कांग्रेसी नेता उनकी 'स्टाइलÓ बताते हैं, जिससे उनमें आस जगी है। राहुल गांधी ने इंटरव्यू के आधार पर टिकट बांटने की कोशिश की है। इस सिस्टम के तहत उम्मीदवारों को अपनी पृष्ठभूमि के बारे में बताना होता है। इसमें आपराधिक रिकॉर्ड, वित्तीय हालत, राजनीतिक गतिविधियों और उस विधानसभा क्षेत्र के बारे में ब्योरा देना होता है, जिसके लिए वे टिकट मांग रहे हैं।  
 कांग्रेस से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इस तरह का फॉर्मेट बनाने के पीछे राहुल गांधी की कोशिश यह थी कि किसी भी नेता को उम्मीदवार तय करने की प्रक्रिया पर हावी न होने दिया जाए। लेकिन कांग्रेस के ही सूत्र यह भी बताते हैं कि राहुल का नया सिस्टम पूरी तरह से काम नहीं कर पाया। मध्य प्रदेश का उदाहरण देते हुए आलोचक कहते हैं कि इस सूबे में बड़ी तादाद में सीटें दिग्विजय सिंह कैंप में चली गईं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि दिग्विजय सिंह के बेटे ने उम्मीदवारों की आधिकारिक लिस्ट आने से पहले ही नामांकन दाखिल कर दिया था। इसी तरह से छत्तीसगढ़ में टिकट बंटवारे में अजीत जोगी की चली।  
कांग्रेस भले ही सीधे तौर पर पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के मुकाबले न खड़ा करती हो, लेकिन जनता इस संघर्ष को इसी रूप में देखती है। जानकार बताते हैं कि अगर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद अब राहुल गांधी के नेतृत्व और उनके सिस्टम पर गंभीर सवाल उठेंगे। बीजेपी के प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी के मुताबिक, 'कांग्रेस के सामने साख का संकट है। इतना ही नहीं मोदी की तुलना में राहुल को बहुत कम रेस्पॉन्स मिला। इसलिए हमारे पास दो सकारात्मक बातें हैं जबकि कांग्रेस के पास कोई ऐसी बात नहीं है।Ó विधानसभा चुनाव में हार का एक मतलब यह भी हो सकता है कि कांग्रेस में राहुल गांधी की अगुवाई में चल रही बदलाव की प्रक्रिया धीमी पड़ जाएगी और सोनिया गांधी फिर से कमान संभाल लेंगी।  
राहुल गांधी की नई स्टाइल की इस बात को लेकर भी आलोचना होती है कि उनका तरीका ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिए जाने से नहीं रोक पाए जिनका रिकॉर्ड आपराधिक था। साथ ही वे ऐसे उम्मीदवारों की संख्या भी कम नहीं कर पाए जो वंशवाद के आधार पर अपना दावा ठोकते हैं। राहुल इन दोनों किस्म के लोगों को टिकट दिए जाने के खिलाफ बोलते रहे हैं। लेकिन इन बातों को सच की जमीन पर पूरी तरह से उतार पाने में वे नाकाम रहे हैं।  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस दो दशकों से ज्यादा समय से सत्ता से बाहर है। लेकिन आगे भी कांग्रेस की राह आसान नहीं लगती है। राहुल गांधी के गृह राज्य उत्तर प्रदेश में 2012 में विधानसभा चुनाव में हार से अब तक कांग्रेस उबर नहीं पाई है। उस हार के लिए राहुल गांधी ने जिम्मेदारी लेते हुए कहा था कि यूपी में उनकी पार्टी का संगठन कमजोर है और उसे मजबूत करने के लिए अब वे उत्तर प्रदेश पर ध्यान देंगे। लेकिन खुद के कुछ दौरों, जनसभाओं और संगठन में ऊपरी तौर पर फेरबदल करने के अलावा राहुल अब तक कुछ ज्यादा नहीं कर पाए हैं। उनकी ताज़ा कोशिशें के नतीजे लोकसभा चुनाव में दिखाई पड़ेंगे। राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने रायबरेली और अमेठी में विकास के कुछ काम कराए हैं और कुछ बड़ी योजनाओं की आधारशिला रखी है। लेकिन उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों पर ऐसी कृपा नहीं बरस रही है। बुंदेलखंड में राहुल गांधी ने बदलाव के वादे किए थे। लेकिन उस क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखाई देता है।
गांधी परिवार का 'गढÓ माना जाने वाला रायबरेली राहुल गांधी की मां और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का संसदीय क्षेत्र है। लेकिन पिछले कुछ सालों में केंद्र सरकार की ओर से कराए जा रहे विकास के काम यहां के कई लोगों को नाकाफी लग रहे हैं। इससे भी ज्यादा की चिंता की बात यह है कि भोजन की गारंटी के कानून का बखान राहुल और सोनिया करते हुए थकते नहीं हैं। लेकिन रायबरेली के वोटर और किसान अर्जुन रेवल कहते हैं, 'मुझे सस्ता अनाज नहीं चाहिए। यह खैरात है। हमें दान नहीं चाहिए। हमें अस्पताल चाहिए जिसमें डॉक्टर हों। हमें सड़क और बिजली चाहिए। हमें कोई ऐसा नेता चाहिए जो महंगाई रोक सके।Ó रायबरेली में कई लोगों को मोदी के विकास के नारे लुभा रहे हैं। यह राहुल और उनकी पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है। अगर राहुल ने तेजी से नुकसान कम करने की कोशिश नहीं की तो उनके लिए लखनऊ 'दूरÓ ही रहेगा।  
 कांग्रेस में बने धड़ों में हो रहे झगड़े को रोकने के लिए राहुल गांधी ने कई बार कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और अजय सिंह के बीच गुटबाजी, राजस्थान में अशोक गहलोत और जोशी, छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के बीच गुटबाजी, हरियाणा में हुड्डा और उनके विरोधियों के बीच चल रही खींचतान को रोकने के लिए राहुल गांधी ने कई बार सार्वजनिक तौर पर बयान दिया है और नेताओं को डांट लगाई है। लेकिन बावजूद इसके पार्टी के भीतर इस तरह के संघर्ष रुक नहीं रहे हैं।

बुधवार, 24 जुलाई 2013

जो अच्छे और सच्चे हैं उनके प्रति सद्भावनाएं, और जो फ्राड है उनकी घोर भर्त्सना के साथ

वही द्रोपद की बेटी है वही मीरा की तानें हैं,
वही राधा की पायल है, वहीं किस्से पुराने हैं।
कहां हो श्याम कलयुग में जरा आओ तो फिर देखो,
तुम्हारे नाम पर घर-घर खुली कितनी दुकानें हैं।।

तुम्ही हो एक सच्चे और जगत आधार हो फिर तुम,
गुरु किरपा यदि हो तो संमंदर पार हो फिर तुम।
गुरु जी रोज टीवी पर यही समझाते रहते हैं, 
करी न गांठ ढीली तो बड़े मक्कार हो फिर तुम।।

यहां दौलत से यारी है, वहां औरत भी प्यारी है,
नशे में भक्त हैं इनके, चढ़ी सिर पर खुमारी है।
नहीं समण कोई इतिहास इनका ढूंढकर देखो,
कभी धरती पर ये थे भार , अब धरती से भारी हैं।।

कमंडल तज दिया,इनके तो पानी भांड भरते हैं,
कोई सेवक को जड़ता है, तो कुछ शिष्या पर मरते हैं।
जो इनकी हार्डडिस्कें चैक हो जाएं तो खुल जाएं
कि बाबा कैसे -कैसे रोज करम और कांड करते हैं।

रविवार, 21 जुलाई 2013

केदारनाथ उदास है

जिन्दा तो साथ थे न थे, मरकर तो साथ हैं।
बरसा के मौत अब, उदास केदारनाथ है।

चखा तक नहीं हैं उसने निवाला भी उसके बाद,
कहते हैं जिसका वास ही शमशानघाट है।

झुकता ही क्यों फिर सर कहो कातिल जो होता वो,
नाथों का नाथ उस जगह बैठा अनाथ है।

राहत में भी चाहत है कमाने की इस तरह,
मानो न मानो यही तो विश्वासघात है।

तांडव कहो, सैलाब कहो, तीसरा नेत्र कहो,
अपनी तो राय... बाढ़ में मानव का हाथ है

पिता का पत्र बेटे के नाम

प्रिय बेटे,
जुग जुग जियो! उत्तराखण्ड के हाल तो तुमने देख सुन ही लिए होंगे। तुम्हारे साथ के बहुत से वीर जवानों ने हमारे भाई बहनों को बचाया, निकाला। फिर भी उनके आने से पहले कई लोगों को मौत छीन ले गई। तुम्हारी बड़ी बेटी नीलिमा उस दिन के बाद से लापता है। हमने आसपास के जंगलों में उसे बहुत ढूंढा, नदियों के किनारे भी तलाश किया। अब आधे गांव में बिछे मलबे को तलाशना बाकी है। मन तो नहीं मानता लेकिन आस टूट रही है, बेटा। तुम्हारी मां और बहू तब से न कुछ खा रहे हैं और न ही पी रहे हैं। बहू नीलिमा की स्कूल की किताबों को समेट कर उसका इंतजार कर रही है। क्या कहूं उससे...समझ में नहीं आ रहा। अस्सी साल का हो गया ऐसी विपदा पहले न कभी देखी न सुनीं। हमारा आधा मकान भी बाढ़ में ढेर हो गया। आधे मकान में रहने में डर लगता है। बाढ़ ने पशुशाला को उजाड़ दिया। रमिया गाय, उसकी बछड़ी सूमा, भैंस भानु सब बह गए। रमिया की लाश तो कुछ दूरी पर मलबे में मिल गई। बाकी पशुओं का कोई पता नहीं चला है। आपदा के बाद की कुछ रातें गांव वालों के साथ हमने भी घर से दूर जंगल में काटीं। अब वापस लौट आए हैं।

क्या करें बेटा यहां से जाएं, तो जाएं कहां। रात को जब नदी हुंकारें मारती है तो दिल सिंहर जाता है। बहू फिर उम्मीद से हैं, ऐसी हालत में यदि और तबाही होती है तो क्या होगा। तुम होते तो कुछ मदद मिलती, पर क्या करें तुम सेना में हो, तुम्हारे साथियों ने हमारे हजारों लोगों की जान बचाई है, तुम अपनी ड्यूटी अच्छी तरह से बजाना, सेना का कर्ज हम उत्तराखण्डी ऐसे ही उतार सकेंगे। बेटा गांव का पोस्ट आफिस भी बह गया है। तुम मनी आर्डर भेजोगे तो मिलेगा नहीं। हां सरकार ने कुछ रुपये दिए हैं। पूरे चार दिन चक्कर काटता रहा पटवारी के दफ्तर के, तब जा कर पैसे मिले। घर में साल भर के लिए जमा करके रखा हुआ गेहूं- चावल सब बर्बाद हो गया है। डर है आगे खाने के लाले न पड़ जाएं। पर तुम परेशान मत होना, जैसे गांव रहेगा वैसे ही हम गंवार भी रह लेंगे।

पड़ोस वाले सतिया चाचा का बाढ़ में पूरा मकान बह गया। घर के चार लोग मारे गए हैं । एक बुढिय़ा ही बची है। पागल सी हो गई है बेचारी। मरने वालों का नाम तक नहीं बता पा रही है वह। बेटा मस्कट में है। पता नहीं उसे मालूम भी है या नहीं। बेटा इस आपदा ने हमारे गांव को बर्बाद कर दिया। हर घर से एक दो लोग गायब हैं। खेतों में बड़े बड़े पत्थर और रेत भर गई है। लगता नहीं कि अब वहां फसल भी पैदा कर पाएंगे। गांव का रास्ता बह गया है। झूला पुल भी बह गया। कुछ नहीं बचा बेटा यहां। गांव के आधे लोग लापता हैं। सुना है कई लाशें गंगा में इलाहाबाद तक पहुंची हैं। कौन जाने हमारे कितने लोग होंगे उनमें। बेटा, जिस खेत में गेंहू कटने के बाद तुम लोग साथियों के साथ खेलते थे, वहां पशुओं की लाशें बिछी मिली है। गांव का भूमिया देवता का पुराना पेड़ भी बाढ़ को कैसे झेलता, वह भी जड़ से उखड़ गया। कई पक्षियों का ठिकाना था उस पर, और शिव जी का वो पुराना मंदिर! वहां तो मलबे के अलावा कुछ नहीं। देवता की पूजा में न जाने कौन सी कमी रह गई हमसे। नई फसल पर रोट चढ़ाते, पशुओं का दूध पहले अर्पित करते और हर काम में पहले उन्हें ही पूजते। लोग कह रहे हैं देवता नाराज हुए, कोई कहता है पड़ोसी देश ने किया यह और कोई कहता है बांधों की वजह से हुई तबाही, जितने मुंह उतनी बातें।

तुम्हारी मां बीमार रहती हैं, तुम्हारी बहन की शादी की तैयारी कर रहे थे, अब वह भी नहीं हो पाएगी। सुना है वहां भी तबाही हुई है। एक दिन पटवारी आये थे, लिखकर ले गए हैं कितना नुकसान हुआ, कहते हैं पैंसे मिलेंगे, इससे क्या होगा, मरने वालों की कमी पैसे ही पूरी कर देते तो मौत को खरीद न लेता इंसान। कुछ बिस्कुट के पैकेट और बोतल बंद पानी दे गए थे। मुंह पर बांधने को कपड़ा भी दिया। बोले महामारी का खतरा है। बेटा महामारी फैली तो शायद गांव में कोई भी न बचे। भगवान ऐसा नहीं करेंगे यही उम्मीद है। तुम्हारे दादा परदादा की सारी मेहनत पर कुछ ही देर में रेत बजरी फिर गई है। नया गांव कैसे बसेगा...समझ में नहीं आ रहा। बेटा, पहाड़ तो होते ही दर्द सहने के लिए हैं फिर पहाड़ी भी कैसे दर्द से दूर रहते। हमें पहाड़ों ने चुपचाप दर्द सहना सिखाया है और यह चिट्ठी लिखते समय आशा करता हूं कि तुम भी इस दर्द व दुख को सहने की हिम्मत जुटा पाओगे। सेना में हो मुश्किल घड़ी में कैसे हिम्मत जुटानी है तुम हमसे ज्यादा जानते हो। बेटा क्या लिखूं कुछ समझ नहीं आ रहा है। तुम अपना फर्ज अच्छी तरह से निभाना, जो होना था हो गया। अब तो बस भगवान का ही आसरा है। लौटोगे तो जरा छुट्टी लंबी लेकर आना, बहुत काम करना है यहां। बस अब नहीं लिखा जाता, दिल भर आता है।

भगवान बदरीविशाल तुम पर कृपा बनाए रखे।
तुम्हारा पिता।

(संकल्पना)

सारा शहर गवाह मेरी खुदकुशी का है

पहचान है सदियों की, मगर अजनबी सा है,
उसका हरेक दांव, तेरी दोस्ती सा है।
कातिल ने मुझे कत्ल किया अब के इस तरह,
सारा शहर गवाह मेरी खुदकुशी का है।।

मैं तोड़ तो दूं रस्म, मगर टूटती नहीं,
दुनिया में मेरा दिल अभी सौ फीसदी का है। 

भटकूंगा भला कब तक बेगाने से शहर में, 
ये घर किसी का है, तो वो छप्पर किसी का है। 

मां बाप की परवाह न जमाने का कोई खौफ
लगने लगा है देश ये 21वीं सदी का है।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

टोडरिया का जाना जैसे एक स्तंभ का ढहना


 बहुत ज्यादा तो नहीं, लेकिन कम से कम सात साल उनके साथ काम करने का अवसर मिला। यह तब की बात है जब वे अमर उजाला हिमाचल के प्रदेश प्रभारी थे। वे शिमला में बैठते थे और मैं उन दिनों शिमला के दूर दराज के इलाके रोहड़ू में। वही रोहडू़ जहां से इससे पहले हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह चुनाव लड़ा करते। इस लिहाज से रोहड़ू प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण विधानसभा क्षेत्र होता था। तब हमने देखा कि खबरों को किस तरह से सिर्फ शब्दजाल से रोचक बनाया जा सकता है। उनकी खबर लिखने की शैली बिरली थी। वे घटना का इतना सजीव वर्णन करते कि पाठक को लगता जैसे वह स्वयं ही घटना को अपनी आखों के सामने होता देख रहा हो। यही शैली हिमाचल के पाठकों को पसंद आई। जब आदरणीय दिनेश जुयाल ने मुझे रामपुर बुशहर पटका तो रोहडू, के साथ रामपुर और पूरा किन्नौर भी मेरे हिस्से आ गया। कुछ हिस्सा कुल्लू का भी अपने दायित्व क्षेत्र में आया। एक दिन श्री टोडरिया का पत्र प्राप्त हुआ। लिखा था पूरे हिमाचल की खबरें शिमला के माध्यम से जाती हैं सिर्फ रामपुर की खबरें सीधे चंडीगढ़ जाती है। इसलिए नई व्यवस्था के तहत अब रामपुर की खबरें भी शिमला के माध्यम से ही जाएगी। उन्होंने पहली फाइल की समय सीमा दोपहर बाद एक बजकर 55 मिनट रखी। मुझे कोर्ट केस के सिलसिले में सुदंरनगर जाना था सो कार्यालय की जिम्मेदारी रामप्रसाद मरालू को सौंप दी। अगले दिन में मंडी कोर्ट से निपट कर मंडी कार्यालय में पहुंचा तो रामप्रसाद का एक पत्र फैक्स किया। पत्र में लिखा था आपकी फाईल पिछले निर्देश के बावजूद पूरे पांच मिनट देरी से दोपहर बाद दो बजे पहुंची है। भविष्य में ख्याल रखें। इस पत्र से साफ हो गया कि टोडरिया जी समय के कितने पाबंद थे। हिमाचल में अमर उजाला की यात्रा के दौरान उनसे न जाने क्यों मधुर संबंध नहीं बन सके। मैंने अमर उजाला से संबंध तोड़ दिए उधर कुछ दिन बाद टोडरिया जी ने भी अमर उजाला से संबंध तोड़ कर दैनिक भास्कर के साथ नई पारी शुरू की। एक दिन भाई राकेश खंडूड़ी जी का संदेश मिला कि टोडरिया जी मुझसे मिलना चाहते हैं। मैं मिला तो उन्होंने कहा ...पिछली बातों को भूल जाओ और अब मैं तुम्हें तुम्हारे तेवरों का शहर देना चाहता हूं। सोलन!... मैंने कहा ठीक है, हम दोनों एक बार फिर एक साथ नई पारी शुरू करने को मैदान में उतर गए। खूब मजे आए काम करने के उनके साथ, लेकिन अच्छी खबर पर उनके एसएमएस दिल को बड़ी तसल्ली देते। लगता इतना बड़ा पत्रकार हमारी खबर को सराह रहा है। लेकिन जब वे किसी गलत खबर पर फटकारते तो घिग्घी बंध जाती, कुछ समय बाद वे भास्कर को अलविदा कह कर देहरादून चले आए और फिर उनका सानिध्य प्राप्त नहीं हुआ। आज सुबह उनके देहावसान की खबर भाई मदन लखेड़ा के माध्यम से मिली तो विश्वास ही नहीं हुआ। लगा जैसे पत्रकारिता का एक बड़ा स्तंभ अचानक ढह गया हो। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।
तेजपाल नेगी
समाचार संपादक
उत्तरांचल दीप

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

सावधान! बापू उवाच रहे हैं

लो जी! अब बापू बोले और बोले तो क्या धांसू बोले। जब तक रील पूरी तरह नहीं धुल गई तब तक बोलते रहे। बोले- क्या जरूरत थी आधी रात को चलती बस में छेड़छाड़ कर रहे छह-छह मुस्टंडों की खिलाफत करने की। भैया बोल देती तो पसीज जाते बेचारे। भारतीय रिश्तों की मान मर्यादा को शराब के नशे में आदमी भूल थोड़े ही जाता है। आखिर अपनी बहन बेटियों का ख्याल तो उसे रहता ही है। फिर बस में मिली धर्म बहन को कैसे भूल जाते। बापू बोले- जब घिर ही गई थी छह पुरुषों के बीच तो हाथ जोड़ कर बचने का जुगाड़ कर लेती। शायद बापू ने हाल ही में अमरीश पुरी या फिर रंजीत की किसी हिंदी फिल्म का आधा सीन देख लिया। जिसमें अस्मत लूटने को तैयार विलेन के सामने हीरो की बहन हाथ जोड़ती हैं, गिड़गिड़ाती है...इससे आगे का सीन उन्होंने नहीं देखा। बस बापू लगे हवस के भूखे भेडिय़ों के सामने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने की नसीहत देने। बापू के भक्त गद्गद हैं, उनके प्रवचन पर। 
सवाल है भारतीय संस्कृति के यह ध्वज वाहक शायद वेदों में वर्णित मां चंडिका के रूप से भूल गए। गैंगरेप पीडि़ता अपने दुश्मनों पर विजय प्राप्त भले ही नहीं कर सकी हो लेकिन उसने लाखों अबलाओं को सबला जरूर बना दिया है। आने वाले दिनों में यही सबला बापू के लिए बला न बन जाएं....


शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

फांसी दो... फांसी दो


जनता बोले फांसी दो
मंगता बोले फांसी दो
लड़की बोले फांसी दो, लड़का बोले फांसी दो
सुपर हीरो भी भड़का, बोले
फांसी दो...फांसी दो।।

रोटी सेकती बीवी बोले, फांसी दो
बेटी देखकर टीवी बोले, फांसी दो
खेल कर आया बेटा बोला, फांसी दो
जाम में फंसा पिता चिल्लाया
फांसी दो ...फांसी दो।।

भीख मांगता भिखारी बोला, फांसी दो
वन में भटका शिकारी बोला, फांसी दो
खेतों में हलधर चिल्लाया, फांसी दो
बाबा जी को गुस्सा आया
फांसी दो....फांसी दो।।

महाराष्ट्र  का हांडे बोला, फांसी दो
अपुन का चुलबुल पांडे, बोला फांसी दो
सेना की भर्ती भन्नाई, फांसी दो
मरघट से अर्थी चिल्लाई
फांसी दो.....फांसी दो।।

अखबारों के पन्ने बोले, फांसी दो
गांव-गांव के 'अन्ने' बोले, फांसी दो
सीता -रीता -गीता बोली, फांसी दो
अंतरीक्ष परी सुनीता बोली
फांसी दो.......फांसी दो।।

राजघाट के गांधी बोले, फांसी दो
इंडिया गेट पर आंधी बोले, फांसी दो
आनंद भवन गरियाया बोला, फांसी दो
संजन वन  बौराया बोला
फांसी दो.....फांसी दो।।

हाट -हाट व्यापारी बोले फांसी दो
बाजी में फंसे जुआरी बोले फांसी दो
नेता की मक्कारी बोले फांसी दो
चूके हुए बलात्कारी बोले
फांसी दो.....फांसी दो।।

परदे की हसीना बोले फांसी दो
मजूदर का पसीना बोले फांसी दो
हर दरबारी नगीना बोले फांसी दो
जो बोला कभी ना, बोले
फांसी दो.....फांसी दो।।

अद्र्घरात्रि दस जनपथ बोला फांसी दो
धुंध में घिरा राजपथ बोला फांसी दो
गांव -गांव का मरघट बोला फांसी दो
लंगड़ा दौड़ा सरपट, बोला
फांसी दो....फांसी दो।।

रायसीना की छाती धड़की फांसी दो
गर्व से चौड़ी थाती फड़की फांसी दो
राजनीति मदमाती कड़की फांसी दो
घर- घर से हर लड़की बोली
फांसी दो....फांसी दो।।

सुषमा -शीला मिलकर बोलीं फांसी दो
रेखा हेमा खुलकर बोलीं फांसी दो
ममता माया रल मिलकर बोलीं फांसी दो
गुड्डी रोई, रो-रोकर बोलीं
फांसी दो....फांसी दो।।

भावी राजकुमार ने बोला फांसी दो
गुजराती सरकार ने बोला फांसी दो
उद्धव के अखबार ने बोला फांसी दो
कान्हा के परिवार ने बोला
फांसी दो.....फांसी दो।।

 जितने थे मजबूर वो बोले फांसी दो
धर्मों के दस्तूर भी बोले फांसी दो
जो थे घर से दूर वो बोले फांसी दो
कानून करो मंजरू उन्हें बस
फांसी दो.....फांसी दो

शिदें जी आंइदा बोले फांसी दो
पीएम थे शर्मिंदा, बोले फांसी दो
दादा ने की निंदा, बोले फांसी दो
जितने थे जिंदा  सब बोले
फांसी दो.....फांसी दो।।

पागल एक औरत चिल्लाई, फांसी दो
मांग रहे हो किससे भाई, फांसी दो
जब सब की है एक लड़ाई, फांसी दो
फिर फाइल क्यों नहीं बनाई..............

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

बिक गए


राजनीति के इस जंगल में
कैसे कैसे नाम बिक गए।
अच्छे खासे दाम ले गए,
कहते हैं बेदाम बिक गए।।

मन था जो वो मौन हो गया
संसद की गलियों में खो गया
मंहगाई के आगे देखो
शास्त्र बचा है अर्थ सो गया।
यह दस जनपथ है बाबू जी
बड़े- बड़े बलवान बिक गए।।


गांधी के अनुयायी हो तुम
देश के कैसे सिपाही हो तुम
सबकी गर्दन काट रहे हो
कितने बड़े कसाई हो तुम
ऊंची थी दुकान तुम्हारी
फीके भी पकवान बिक गए।।


एक बूढ़े को गरियाते हो
आवाज देश की झुठलाते हो
नौटंकी करने वालों को
देश की संसद में लाते हो
तुम तो क्या हो इस धरती पर
गद्दाफी-सद्दाम बिक गए।।


खुद भूखे - नंगे लगते हो
जनता को भूखा कहते हो
जिसके सेवक हो तुम सालों
से उसको धोखा देते हो
मालिक सोया रहा आज तक
घर के सारे धान बिक गए।।


जनता जब उल्टी बहती है
उलट पुलट सब कर देती है
जितना खाया है उगला कर
बाद एनीमा देती है
वक्त है समझ जाओ अच्छा है
फिर कहोगे, हे राम ! बिक गए

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

देख तमाशा टोपी का




अन्ना के आंदोलन ने देश को अपने जाल में पूरी तरह से जकड़ लिया है। इसे खादी की टोपी का जादू ही कहा जाएगा कि पूरे देश में इतना बड़ा आंदोलन हो रहा है लाखों करोड़ों लोग उसमें सिरकत कर रहे हैं, लेकिन कहीं से भी अब किसी भी प्रकार की हिंसा की कोई खबर नहीं है। हालत यह है कि इस आंदोलन का श्रेय लेने की भी कहीं कोई होड़ नहीं दिख रही। खादी का जादू ऐसा कि आजाद और उच्छश्रृंखल समझी जाने वाली युवा पीढ़ी भी 74 वर्षीय एक बूढ़े के पीछे आ खड़ी हुई है। यही इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत है। त्योहारों वाले इस देष में जहां छोटे-छोटे मेलों के आयोजन के लिए विशेष पुलिस बल की आवश्यकता होती है, लेकिन इस आंदोलन में दिल्ली में सरकार द्वारा पैदा किए गए कृत्रिम खतरे को देखते हुए तैनात की गई पुलिस के अलावा कहीं भी अतिरिक्त पुलिस बल की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। संभवतः आजादी के आंदोलन के बाद यह पहला आंदोलन है जहां पुलिस और आंदोलनकारियों में 72 घंटों के दौरान कोई टकराव नहीं हुआ है। सब तिरंगा उठाए नारे लगाते हुए अपने में खोए अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं। पहाड़ हो या मैदान, गांव हो या शहर हर जगह बस एक ही आवाज ....मैं भी अन्ना। संभवतः इस आंदोलन के अहिंसक होने का एक यह भी प्रमुख वजह है कि जंग में शामिल होने वाला हर सिपाही अपने आप में सेनापति है। सबके कंधों पर आंदोलन को सफल बनाने की जिम्मेदारी बराबर रूप से बंटी है। बच्चे हो या बूढ़े तिरंगा हाथ में आते ही सबका जोश समान हो जाता है, सब बराबर के जिम्मेदार हो जाते हैं। एक खासियत यह भी है कि जींस और नए फैशन की शर्ट पर युवा गांधी टोपी पहन कर आंदोलन में सिरकत कर रहे हैं। है न नई और पुरानी संस्कृति का विस्मयकारी मेल....अद्भुत!
रैलियों में जाने के लिए अपने वाहनों में निकलने वाले लोग यह नहीं सोचते कि मंहगे होते जा रहे पेट्रोल का खर्च कैसे वहन करेंगे। यही नहीं अंजाने साथी आंदोलनकारियों के लिए पानी से लेकर खाद्य, दवाई व पोस्टर आदि का इंतजाम भी वे स्वयं ही कर रहे हैं। केंद्र सरकार की प्रभुसत्ता को जानने -समझने के बावजूद आम आदमी की भीतर का जोश इस समय हिलोरे मार रहा है। अन्ना की गिरफ्तारी के बाद उपजे आक्रोश का ही नतीजा है कि आंदोलन दो दिनों के भीतर ही चहुमुखी हो गया। जनता से मिलने वाले इस अपार समर्थन की तो स्व्यं अन्ना को भी उम्मीद नहीं रही होगी तो सरकार क्या खाक उम्मीद करती। यही वजह है कि लोगों के भारत माता की जय की दहाड़ों के आगे कपिल सिब्बल से लेकर दिग्विजय सिंह तक की आवाज किसी बिल्ली की म्याऊं की तरह प्रतीत हो रही है। यह अन्ना की खादी टोपी का ही प्रताप है कि अपने आप को देश का भाग्य विधाता समझने वाले नेता अब उनके सामने आने से भी कतरा रहे हैं। बाबा रामदेव को छलने वाले नेता अन्ना के सामने न पड़ कर नौकरशाही के माध्यम से अपनी बात उन तक पहुंचा रहे हैं। खबर तो यह भी है कि घबराई सरकार अब अन्ना के सामने अपने कांग्रेस के युवराज को शांति दूत बनाकर भेजने की तैयारी कर रही है। सोनिया ने तो पहले ही अन्ना को दो टूक सुना कर उनसे बातचीत के रास्ते बंद कर लिए थे। जो भी हो सरकार ने अन्ना को दांव खेलने से पहले ही चित्त करने की जो रणनीति अपनाई थी, अन्ना ने उल्टा दांव चल कर सरकार पर ही घोड़ा पछाड़ आजमा दिया। प्लान बी के अभाव में सरकार जमीन सूंघने को विवश हो गई, जबकि अन्ना का प्लान बी अभी बाकी है। अब तक बाबा रामदेव के माध्यम से भारतीय लंगोटी का कमाल देख कर हैरान परेशान दुनिया अब भारतीय धोती-टोपी के चमत्कार को नमस्कार कर रही है। अभी आंदोलन का अगला चरण बाकी है जब अन्ना अपने समर्थकों के बीच बैठ कर आंदोलन चलाएंगे। तब दुनिया देखेगी बूढ़े भारतीय की असली ताकत, हिंदुस्तानी जवानों का जोश और मातृशक्ति का दृढ़ संकल्प।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

हां मैंने अन्ना को देखा है


अन्ना हजारे को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा कर केंद्र सरकार ने उन लोगों को हमला करने के लिए आमंत्रित कर लिया जो शुरू से ही मनमोहन सरकार पर तानाशाही का आरोप लगा रहे थे। हजारे की गिरफ्तारी करने की योजना बनाते समय संभवतः सरकार के मन आंदोलन की गंभीरता का अंदाजा नहीं था, या फिर सरकार के नीति निर्धारक जनता के मन को पढ़ने में कहीं चूक कर गए। वर्ना यदि देश के हालातों का सही जायजा लगाने वालों को सानिया गांधी अपने नजदीक रखतीं तो ऐसी स्थिती नहीं आती। आजादी की वर्षगांठ की अगली ही सुबह देश में जो जंग शुरू हुई है उससे पार पाना सरकार के लिए कम से कम आसान काम तो नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से यह कहा जा सकता है कि फिलहाल देश के मंत्री मंडल में कोई ऐसा शख्स नहीं बचा रह गया है जिस पर जनता विश्वास करने को तैयार हो। कल सुबह लगभग आठ बजे अन्ना के गिरफ्तार करने की खबर देश में फैली ठीक तब से लेकर आज घटना के लगभग 36 घंटे बाद भी ऐसा नहीं लग रहा कि हम देश का 67 स्वाधीनता दिवस मना कर अगली सुबह देख रहे हैं। हर मोहल्ले, चैक, हाईवे, बाजार में तिरंगा लिए लोग जब स्वतः स्फूर्त होकर निकलते हैं तो आजादी ेस पहले के आंदोलन की कल्पना साकार होती दिखाई पड़ती है।
कांग्रेस या सरकार चाहे माने या माने लेकिन यहां पर अन्ना का जादू पार्टी और सरकार के एक से एक आकर्षक चेहरे के जादू के भारी पड़ गया है। कांग्रेस के युवराज का तेजोमयी चेहरा, अन्ना के बूढ़े चेहरे के सामने फीका दिख रहा है। सोनिया गांधी तो खैर देश में हैं ही नहीं। गांधी परिवार की कांति इस गांधीवादी के सामने फीकी पड़ गई है। यह तो अन्ना हजारे की गिरफ्तारी के दूसरे दिन का हाल है।
दरअसल महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने की 65 वर्षों से अपील करते करते कांग्रेस और उसके नेता भूल ही गए कि गांधी की राह आखिर थी कौन सी। गांधी के दर्शन को समझने वाले न अब कांग्रेस में बचे और न सरकार में। एक कवि ने कभी कहा था कि -गांधी के पदचिह्न आज भी अछूते पड़े हैं....क्योकि उन पर कोई चला ही नहीं। यही कुछ हुआ कांग्रेस के साथ गांधी के कदमों को नापने का दावा करने वाली कांग्रेस अनशन, भूख हड़ताल आदि जैसे शब्दों से बहुत दूर जा चुकी है। दिग्विजय सिंह से लेकर कपिल सिब्बल तक पढ़े लिखे कांग्रेस के नीति निधार्रक स्वयं को ईश्वर मान बैठें तो पार्टी का यही हश्र होना था।
जनता के वोट से चुनकर संसद में पहुंचने वाले हमारे नेता जनता को ही भूल जाते हैं। इस आरोप को साबित करने के लिए अन्ना के आंदोलन पर हमारे नेताओं की टिप्पणियों से अच्छा कोई उदाहरण नहीं हो सकता। पिछले एक अरसे से हमारे राजनीतिज्ञों ने टीम अन्ना द्वारा तैयार लोकपाल बिल के प्रारूप को लेकर जो भी टिप्पणियां की हैं वे सभी उनकी ओर से स्वयं को परमसत्ता साबित करने जैसा ही लगा। अब जब अन्ना और सरकार के बीच महाभारत का निर्णायक संग्राम शुरू हो चुका है तो आम जनता के इस महासंग्राम में कूदने से सरकारी पक्ष हल्का महसूस हो रहा है। भारत की जनता आज आजादी की दूसरी लड़ाई को जी रही है। अन्ना के एक एक शब्द का देश की जनता अक्षरशः पालन कर रही है। ठीक वैसे जैसे कभी लाल बहादुर शास्त्री की अपील पर जनता ने एक दिन का व्रत रखना शुरू कर दिया था, या गांधी जी के कहने पर असहयोग आंदोलन को पूरे देश में समान रूप से जन समर्थन मिला था।
अन्ना और गांधी में काफी कुछ अंतर होते हुए यही एक समानता है कि उनके चेहरे पर छायी सादगी पर आम आदमी मर मिटने का तैयार हो जाता है। अन्ना और बाबा रामदेव के आंदोलन के बीच काफी कुछ समानता होते हुए भी यही अंतर था। बाबा रामदेव भव्यता पर जोर देते थे, और अन्ना सादगी पर ध्यान देते है। लालबहादुर जैसी कर्मठता अन्ना बार बार दिखा भी चुके हैं और उनका आंदोलन जिस दिशा में बढ़ रहा है उसे देख कर तो जय प्रकाश नारायण की यादें भी लोगों की आखों में तैरने लगी हैं। लेकिन देश की नई पीढ़ी जिसने गांधी से लेकर जय प्रकाश तक को नहीं देखा उनके लिए अन्ना में ही गांधी है, अन्ना में ही लाल बहादुर या सुभाष चंद बोस हैं, देश की यह आम जनता अपनी आने वाली पीढ़ी को शान से अन्ना की आजादी की इस दूसरी लड़ाई के किस्से सुनाएगी और कहेगी..... हां मैंने अन्ना को देखा है।

रविवार, 19 जून 2011

योगी हैं तो रोगी कैसे

व्यंग्य
बाबा
रामदेव और उससे ज्यादा दिल्ली पुलिस से माफीनामे के साथ

पिछले एक अरसे में देश न राजनिति का जो कुरूप चेहरा देखा है. उसे देखकर अच्छे से अच्छा भी सहम जाए. रामलीला मैदान दिल्ली में राम (देव) की सेना पर शीला की पुलिस न जिस तरह हमला किया उसे देख कर अन्ना जैसे अहिंसावादी व्यक्ति की आँखों में भी खून की बूंदे साफ दिखाई पड़ने लगी थी. खाकी से मार खाए रामदेव कुछ ही घंटों में पहले हरिद्वार और फिर कुछ ही दिनों में हिमालयन इंस्टिट्यूट जा पहुचे. बाबा के भक्तों की समझ नहीं आ रहा है की जो एक से एक आसान आसनों से शारीरिक और मानसिक परेशानियों को दूर करने का दावा करते थे व मात्र 6 दिन तक भी आहार नहीं छोड़ सके. इतने से ज्यादा दिनों तक साधारण सा भारतीय भी नवरात्र या रोज़ा रख सकता है. बाबा की इस हालत पर उनके कुछ ख़ास टाइप के भक्तों ने तर्क दिया की बाबा को आन्दोलन को लेकर तनाव था. पर यह तर्क भी बाबा के योग तर्क की कसौटी पर स्वयं खरा नहीं उतर सका.बाबा की इस हालत ने तो हमें भी दुखी कर दिया कम से कम दो तीन दिन न तो खाना अच्छा लगा न पीना. बस इस ही उधेड़ बुन में दिन कटने लगे की अगर पत्नी ने हमे दो दिन निराहार रख दिया तो हमारी हालत पूछने तो कोई निशंक या मोहल्ले का कलंक भी नहीं पहुचेगा. कल इन्हीं टाइप के सोच विचार के बीच सुबह का अखबार छान रहे थे कि शायद कोई खोजी पत्रकार खबर के माध्यम से हमारी जिज्ञासा शांत कर दे. तभी पडोसी मिश्रा जी आ धमके ...पत्नी को चाय का आर्डर झाड़ कर वे धम्म से सोफे पर बैठ गए और हमारे हाथों से अख़बार लगभग छिनते हुए बोले. क्या सुबह सुबह अखबार लेकर बैठे हो.
इन मिश्रा जी टाइप लोगों में यही खासियत होती है दूसरे की जिस चीज़ पर उनकी नज़र होती हैं उसे वे दुनिया की सब से निकीरष्ट चीज़ साबित का देते हैं. हम उनकी चालाकी से रोज़ ही दो चार होते हैं सो कुछ नहीं बोले. कुछ देर में पत्नी चाय ले आयी . मिश्रा जी शान से एक हाथ से चाय और दूसरे से अखबार को संभाल रहे थे और हम उनका मुंह ताकने का अलावा कर भी क्या सकते थे. आखिर घर आये इस बिना बुलाये मेहमान का अपमान भी ठीक नहीं. हमने बात शुरू की- क्या चल रहा है मोहल्ले में..
वो अखबार के पन्ने पर नज़र गढ़ाए हुए बोले ...मोहल्ले के बारे में ही पूछोगे या देश के हालात पर भी कभी नज़र डालते हो.
इस हमले से हम तिलमिला कर रह गए. मन में तो आया कि बोल दें की तुमने हमे राहुल गाँधी समझ रखा है पर मिश्रा जी गडकरी के रूप में आ गए तो क्या होगा और उम्र का लिहाज़ करना तो हमारी गौरवमयी परम्परा है..सो चुप्पी साधने में ही भलाई समझी. खैर चाय के चुस्कियों के साथ वे नार्मल होने लगे. जब माहौल बातचीत का बना तो हमने स्वामी रामदेव की हालत पर उनसे टिप्पणी मांग ली. मिश्रा जी तो जैसे तैयार हो कर ही आये थे...बोले अरे बाबा भूख वूख की वजह से बीमार नहीं पड़े हैं. इस के पीछे राज़ है....
हमे और चाहिए क्या था. एक बार तो सिर धुनने का मन हुआ कि जिस सवाल को लेकर इतने तनाव में जी रहे थे उसे एक बार मिश्रा जी के सामने पहले क्यों नहीं रख दिया. खैर अब तो जवाब खुद ही हमारे घर चल कर आया है...सो हम भी सुनाने को तैयार हो गए.
.मिश्रा जी ने चाय की अंतिम चुस्की ली और दिग्विजय सिंह स्टाइल में शुरू हो गए. बोले बाबा न तो पिटाई से घायल हैं ना ही भूख से बीमार .. दरअसल उन्हें कुछ घंटे दिल्ली पुलिस का मेहमान बनने का सौभाग्य जो मिला था.....
तो ? ......हमने एक शब्द में सवाल उनकी ओर ऐसे उछाला जैसे सचिन तेंदुलकर ने वर्ल्ड कप में पाकिस्तानी फील्डरों की ओर कैंच उछाले थे.
मिश्रा जी कोई पाकिस्तानी फील्डर तो नहीं जो हाथ में आया कैंच टपका दें. बोले- कभी दिल्ली पुलिस का पल्ले पड़े नहीं हो.. एक दो लफ्ज़ सुनोगे तो कई दिन पानी गले से नीचे नहीं जाएगा. अरे बाबा को पुलिस के जवानों ने अपनी भाषा में वो सब कुछ समझा दिया जो चार चार मंत्री नहीं समझा सके.
इस बार हमने मुंह से कुछ नहीं कहा पर आँखों से उनकी बात न समझ पाने की लाचारी जता दी.
अब क्या था मिश्रा जी का परम ज्ञान उनके होठों के रास्ते टपकने लगा. बोले- तुम भी न...अरे पुलिस के लोगों ने बाबा को अपने ही अंदाज़ में समझा दिया की रामलीला मैदान से न जाने की जिद की तो हवालात में उनके साथ क्या क्या हो सकता है. सडकों पर पुलिस के हाथ में रहने वाला जनता का रछक डंडा थाने में जा कर कौन से रास्ते तलाश करने लगता है. एक दो पुलिसिया मन्त्र भी बाबा को सुना दिए होंगे तो कोई आश्चर्य नहीं. बस इससे ज्यादा तो बाबा झेल भी नहीं पाते. उन्होंने आगे जोड़ा- यही वजह है कि बाबा ने हरिद्वार में आ कर मैदान में डंडा चलाने वाले सब पुलिस वालों की बुराइयां की, लेकिन गाडी में मिले दरोगा को अच्छा बताया. हरिद्वार में भी बाबा के दिमाग में उस दरोगा का खौफ छाया था. और इसी खौफ ने बाबा को 6 दिनों में ही बेहोश कर दिया. आप तो जानते हो बाबा खुद ही कहा करते हैं की हर बीमारी व तनाव का इलाज योग है पर उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि खौफ का कोई इलाज है..वो भी दिल्ली पुलिस का खौफ..... बाबा किसी को उस वार्तालाप के बारे में बता भी नहीं सकते सो 6 दिन बहुत थे बेहोश होने के liye.
कह कर मिश्रा जी चुप हो गए.
और हम सोच में पड गए कि मिश्रा जी की बात में दम तो है.....आखिर योगी रोगी कैसे हो सकता है.



गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

ग़ज़ल

तुम्हें मुबारक तुम्हारी खुशियाँ,
हमारे दिल को भी गम नहीं है।
नहीं था कह दो कि प्यार हमसे,
तुम्हें तो कोई कसम नहीं है॥

है प्यार सच्चा तेरे जहाँ से,
ये प्यार ऊंचा है आसमां से।
तुम्हें भले ही यकीन न हो,
हमे तो कोई भरम नहीं हैं॥

लहर के डर से किनारे बैंठे,
यही नहीं है हमे गंवारा।
भले ही कट जाएँ पर हमारे,
पर हौसले भी तो कम नहीं हैं॥

वो दोस्त हैं तो करीब आयें,
जो दुश्मनी है तो फिर निभाएं।
ये सोच के घर से चल पड़े हैं,
कि आज वो हैं या हम नहीं हैं॥

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

खुद ही जाओगे नेताजी या


अन्ना हजारे की मजबूरीवश घोषित की गई जीत के बाद बौखलाए केंद्र सरकार के पहरूए कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद न जन लोकपाल विधेयक को ले कर जो टिप्पणी की हैं। उनसे न सिर्फ उनकी मंशा बल्कि सभी राजनीतिज्ञों की विचारधारा पर ही सवाल खड़े हो गए हैं। जन लोकपाल विधेयक का खाका बनाने के लिए बनाई गयी समिति में सरकार न जिन मंत्रियों को शामिल किया है, ये दोनों भी उनमे से ही हैं... ऐसे में पहला सवाल तो यही उठता है की जिन लोगों का प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक में विश्वाश ही नहीं है वे उसका खाका क्या ख़ाक ईमानदारी से तैयार करवाएंगे....इससे अच्छा होता की सिब्बल और खुर्शीद इस समिति से इस्ताफा दे देते। तब अगर वे कोई टिप्पणी करते तो बात कुछ समझ में आती। वैसे कपिल सिब्बल की टिपण्णी है भी बेतुकी। उन्होंने एक जगह कहा है कि लोकपाल विधेयक का फ़िलहाल कोई औचित्य नहीं है। उनकी माने तो जब तक देश के सभी बच्चों के लिए स्कूलों, गरीबों के लिए चिकित्सालयों और हर हाथ को काम की व्यवस्था नहीं हो जाती इस विधेयक का कोई औचित्य ही नहीं होगा। अब कोई सिब्बल साहेब से पूछे कि यदि आज़ादी के साठ साल बाद भी हमारे नेता हर बच्चे को स्कूल नहीं भेज सके , हर व्यक्ति के लिए चिकित्सालय का और हर हाथ को काम का इंतजाम भीं कर सके तो इसमें गलती किसकी है..आम आदमी कि या फिर सरकारों की वो भी तब जब आज़ादी के बाद से आज तक अधिकांश समय उनकी ही पार्टी न देश पर राज किया।
अपने बयान में उन्होंने भष्टाचार की बानगी भी पेश की कि नेता या अफसर के फोन किये बगैर बच्चे का स्कूल में और मरीज को चिकित्सालय में भरती नही किया जाता। यह कह कर उन्होंने स्वयं सिद्ध कर दिया कि भ्रष्टाचार में नेता और अफसरशाही का सबसे ज्यादा हाथ होता है। सिब्बल साहेब भूल गए कि वे एक प्रजातांत्रिक सरकार के जिम्मेदार मंत्री हैं। उन्होंने अब तक इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए क्या किया यह भी उन्होंने नहीं बताया। यह तो वही बात हुई कि हथियार हाथ में लेकर हम सामने वाले की तलवार को कोसने लगें। मंत्री का एक प्रस्तावित विधेयक को लेकर ऐसे बयान देना उनके मानसिक दीवालियेपन की ओर इशारा कारता है। मंत्री ने उस विवादित बयान से न सिर्फ अपने क़ानून की खामियों को साथ ही अपनी ही सरकार के ऊपर पड़ा पर्दा भी उठा फेंका है। उनके बयान से यह भी साबित हो गया है कि दोनों ही मंत्रियों का लोकपाल बिल में कोई विश्वाश नहीं है। यह भी कि केंद्र सरकार ने अन्ना को मिले देश ही नहीं विश्वव्यापी समर्थन से घबराकर उनकी मांग तो मान ली, लेकिन अब सरकार विधेयक को लेकर बेहद असमंजस में है। दक्षिण भारत में विधानसभा चुनाव के परिणामों के खतरे को भांप कर सरकार ने अन्ना के आन्दोलन को जल्दी से जल्दी निपटा तो दिया लेकिन अब लोकपाल विधेयक को लेकर वह गंभीर नहीं है। जो भी हो अन्ना को लेकर देश में आज़ादी के बाद इतना बड़ा सत्याग्रह हुआ है। इसके सूत्रधार अन्ना ही हैं । सरकार को यह बात कचोट रही है। स्मरण हो तो आन्दोलन के शुरू में कांग्रेस के प्रवक्ता का सिंघवी ने अन्ना का एक तरह से मजाक उड़ाते हुए कहा था कि अन्ना के समर्थकों व देशवासियों को उनके स्वास्थ्य का ख्याल करते हुए उनका अनशन तुडवाने लिए दवाब बनाना चाहिये, यह कहते केअन्ना पर पर का सबसे कुशल वकील और वक्ता मानने वाले सिंघवी शायद भूल गए कि उम्र के इसी दौर में महात्मा गाँधी ने न जाने कितने अनशन किये और अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
उन्हीं गाँधी कि रह पर जब अन्ना न एक कदम रखा तो कांग्रेस्सियों के सीने में सांप लोटने लगे. वैसे ये वही कांग्रेसी हैं जो मौके बेमौके लोगों से गाँधी जी के बताये रस्ते पर चलने कि अपील करते रहते हैं.हैं न नेताओं का दो मुहापन. लगता नहीं कि नेता अपने हाथ से इतनी आसानी से बाज़ी अपने हाथ से जाने देंगे. वे जेल कि सलाखों के पीछे जाने से पहले अपने बचाव के हर रास्ते से भागने कि कोशिशें करेंगे. वैसे काम से काम कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद को तो अब इस कमेटी में बने रहने का कोई अधिकार ही नहीं रह गया है..वे स्वयं नहीं गए और ऐसे ही बोलते रहे तो जनता उन्हें स्वयं बाहर कर देगी.

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

अब तक तो 4जी घोटाला भी खुल जाता जी


व्यंग्य
अब तक तो 4जी घोटाला भी खुल जाता जी

देश के नामी गिरामी लोगों के ग्रह इन दिनों ठीक नहीं चल रहे हैं। राजा रंक बन चुके हैं तो कलमाड़ी सहमे हुए बैठे हैं जाने कब सादी वर्दी में सीबीआई आए और ससुराल ले जाए। कलमाड़ी क्या छोटे बड़े घोटाले कर के अब तक कालर खड़े करके घूमने वाले कई लोगों के कालर आज कल गिरेबान के ऊपर झूल रहे हैं। कई भाई लोगों के गिरेबान तक सीबीआई के हाथ पहुंचने ही वाले हैं तो कई के कालर इस जांच एजेंसी कभी भी ऐंठ सकती है। हालात को समझते हुए कलमाड़ी भाई ने आखिरी भभकी भी दिखा दी, पर होई है जो राम रचि राखा....वाली चैपाई शायद तुलसीदास जी ने उन्हीं के लिए ही लिखी थी। राजा भी ससुराल जाने से पहले ऐसे ही सीबीआई को घुड़की मार रहे थे, पर अब चुपचाप जेल की रोटी खा रहे हैं। परसों अखबारों ने छापा था कि राजा जमीन पर सोए, मेस की रोटी खाई, पढ़कर पत्रकार को कच्चा चबा जाने का मन करने लगा था। भले ही शेर भूखा मर जाए लेकिन वह घास कभी नहीं खाता ऐसे ही चाहे कितना बुरा वक्त जाए राजा जमीन पर नहीं सो सकता। वो तो नाम से भी राजा ही हैं.... अगर बंदा जमीन पर सो भी गया तो उस पर खबर लिखनी क्या जरूरी थी। राजा का नहीं कम से कम पुरखों के मुहावरे का तो ख्याल किया होता। अब कोई और मुहावरा गढ़ना होगा। गनीमत है राजा साहिब का केस उत्तर प्रदेश की पुलिस साल्व नहीं कर रही है वर्ना अब तक राजा साहब 2 जी से लेकर 4 जी स्पेक्ट्रम तक के सारे राज उगल चुके होते, क्या कहा 4 जी तो अभी आया ही नहीं तो क्या हुआ आप हमारी यूपी पुलिस की काबिलियत पर शक नहीं कर सकते, यह वही पुलिस है जो बड़े से बड़े के को पलक झपकते ही साल्व कर देती है, पर क्या करें जितने भी बड़े मामले होते हैं सबमें हाथ रिक्शा चालकों या फिर कूड़ा बीनने वालों का ही होता है, पहली बार यूपी पुलिस के हाथ राजा जैसी शख्सियत लगती तो इसमे कोई संदेह नहीं कि यूपी की काबिल पुलिस उनसे निकट भविष्य में होने वाले 4 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के राज भी उगलवा कर ही छोड़ती। अब जरा कल्पना करें कि कलमाड़ी मामले को भी समय रहते यूपी पुलिस के हवाले कर दिया जाता तो क्या वे इस समय कोई बयान देने लायक बचते। आज केंद्र सरकार को लपेटने वाले कलमाड़ी इस समय खुद ही लिपटे पड़े होते कहीं। उनसे हमारी पुलिस अगले खेलों में होने वाले संभावित घोटालों के राज भी उगलवा की बाहर लिकलवा लेती। वह तो सीबीआई है जो आइये सर, बताइये सर की रट लगाए रहती है। यूपी पुलिस के सामने जो एक बार नहीं खुलता तो पुलिस अगली बार में उसे ही खोल देती है। यह अलग बात है कि एक दो पुलिस वालों के लिए माया कमजोरी है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि पृथ्वी लोक के सभी मायावियों की चप्पलें यूपी पुलिस साफ करती फिरे। पत्रकारों ने तो इस छोटी सी बात का भी बतंगड़ ही बना दिया। बहन जी की सुरक्षा में लगे जवान का फर्ज था कि वे साए की तरह उन के साथ रहे। चप्पलों में लगी धूल की वजह से बहन जी को एलर्जी हो जाती और वे जुखाम या बुखार का शिकार हो जातीं तो आप लोग सुरक्षा दल को ही कसूरवार ठहराते न। खैर यूपी पुलिस जानती है ऐसे लोगों से कैसे निपटना है। फैसला आन स्पाट करने में भी हमारी पुलिस पीछे नहीं है। इसलिए कलम के सिपाहियों कानून के सिपाहियों से पंगा मत लेना। कलम तोड़ के कहां डाल दी जाएगी इसकी कल्पना मात्र से ही अपना तो दिल सहम जाता है।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

योजना
बरसात का मौसम बीते छह महीने हो गए, सरकार बाढ़ से प्रभावितों की मदद के आंकड़े प्रचारित करने में लगी थी। प्रदेश के गृह सचिव अधिकारियों की बैठक ली।विकास योजनाओं के पूरा न होने से उनका गुस्सा सातवें आसामान पर था। जिलाधीशों को फाइनली आदेश दिया- समाज के आखिरी व्यक्ति तक योजनाओं का लाभ पहुंचाने के हर संभव प्रयास किए जाएं। बैठक समाप्त हुई। जिलाधिकारियों ने अपने-अपने जिलों में पहुंच कर उपमंडलाधिकारियों की बैठकें बुलाई। सरकारी विकास योजनाओं को समाज के अंतिम आदमी तक पहुचाने के निर्देश जारी कर दिए गए। एसडीएम भी अपने कार्यालय में दो घंटे तक तहसीलदार, पटवारियों की बैठक कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास योजनाओं का लाभ पहुंचाने की रणनीति बनाने में लगे रहे। बाहर दरवाजे पर बरसात से हुए नुकसान की राहत पाने के लिए इतवारु दो घंटे से साहब के द्वार पाल से एसडीएम साहब से मिलने देने की मन्नतें करता रहा। साहब के बैठक में व्यस्त होने के कारण वह एक बार फिर बिना राहत लिए वापस लौट गया....अंदर बैठक में समाज के अंतिम व्यक्ति की खोज जारी थी।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

प्री मेच्योर बच्चे का इंटरनेट युग में एक्सटेंशन
वक्त के साथ बहने वाले भले ही अधिसंख्य हों, लेकिन अपने ही जमाने और दुनिया में जी रहे इक्के-दुक्के लोग आज भी भीड़ का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। ऐसे ही एक शख्श से मेरी मुलाकात हुई लगभग आठ साल पहले। नाम था रत्न चंद निर्झर। नाम अच्छा सा लगा सो कुछ लंबी बातचीत भी की। यह उस वक्त की बात है जब मैं दैनिक भास्कर में हिमाचल प्रदेश के सोलन ब्यूरो कार्यालय का प्रमुख था। निर्झर से मुलाकात हुई, कुछ रुचिकर और अरुचिकर दोनों ही विषयों पर चर्चाएं हुईं। मैं पहली ही मुलाकात में ताड़ गया कि इस व्यक्ति के भीतर साहित्य का एक निरंतर बहता हुआ झरना झरता है। खैर निर्झर जी गए तो साथियों ने चेतावनी दी कि इस व्यक्ति के साथ ज्यादा रहे तो यह आपसे ही चिपक जाएगा। मैंने अनुसुनी कर दी, लेकिन एक खिंचाव सा लगा था उनकी सादगी और बातों में। दुनिया जहान से दूर वे कभी राहुल सांकृत्यायन की बात करते तो लगता उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं, फिर अचानक प्रेमचंद पर आ जाते। उनसे पहली मुलाकात इस लिहाज से भी अच्छी कही जा सकती है कि उन्होंने इससे पहले मेरा नाम सुन रखा था। बस इतनी सी जान पहचान को उन्होंने इस अंदाज में प्रस्तुत किया कि जैसे बहुत पुराना संबंध हो। जो भी हो साथियों की चेतावनी का मुझ पर असर जरूर पड़ा, लेकिन यह डर चौबीस घंटे में ही प्राण त्याग गया। अगले दिन सोलन के माल पर टहलते हुए निर्झर से फिर सामना हो गया। उन्होंने एक दिन पुरानी मुलाकात की औपचारिकता को ताक पर रखते हुए सीधे ही हमला बोल दिया: क्यों चोरों कहां घूम रहे हो.... कई लोगों के सामने जब उन्होंने इस तरह संबोधित किया तो साथियों की चेतावनी मेरे कान के पर्दों पर टकराने लगी। वह सितंबर महीने के अंतिम दिन थे। खैर उन्होंने काफी हाऊस में चाय पीने के लिए कहा तो मैं किसी जादू से बंधा उनके पीछे हो लिया। चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने बताया कि काफी हाऊस के स्वामी भी गढ़वाल से ही हैं, उन्होंने बाद में उनसे परिचय भी कराया, यह अलग बात है कि मेरी उनसे पहली मुलाकात ही इतनी जोश भरी नहीं रही कि दोबारा हाय हैलो से आगे बढ़ पाती। खैर निर्झर ने उस दिन बताया था कि दो अक्तूबर को वे उपवास रखते हैं। मैंने समझा कोई व्रत या त्योहार आता होगा सो पूछ लियाः किस खुशी में!
उन्होंने बताया कि उस दिन लाल बहादुर शास्त्री जी का भी जन्मदिन होता है और इस दिन वे पिछले तीस सालों से व्रत रखते आ रहे हैं। यह जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा का समंदर हिलोरे मारने लगा। यह मेरे लिए चौकाने के वक्त था, लेकिन उन्होंने यह असाधारण सी बात इतने साधारण लहजे में कही थी, कि मेरा चेहरा भावों को लेकर गच्चा खा गया। आज के समय में जब आदमी छोटी छोटी बातों को लेकर अपने पुरखों को कोसने लगता है तब लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिन पर उपवास रखना अपने आप में सुखद आश्चर्य ही कहा जाएगा। बातचीत तो उस दिन उनसे काफी हुई, लेकिन मैं उपवास की उस जानकारी से बाहर निकल ही नहीं सका। मेरा मन बार बार उन्हें सेल्यूट करने का कर रहा था, लेकिन वे ठहरे निर्झर.....
इत्तेफाक से मुझे कमरा भी उनसे करीब पचास कदम पहले ही मिल गया, फिर क्या था वे बच्चों को पढ़ाने के बाद देर रात मेरे कमरे पर आ जाते़..... हाथ में रेडियो, कंधे पर थैला और थैले में दैनिक अजीत से अंग्रेजी ट्रिब्यून तक कई छोटे और बड़े समाचार पत्र। साहित्य पर उनकी जानकारी मुझे सोचने पर विवश कर देती।
घूमने के मामले में निर्झर का कोई सानी नहीं। वे पैदल-पैदल कई किलो मीटर का सफर आज भी तय कर जाते हैं। मुझे याद है एक दिन वे मेरे घर देहरादून आए। मुझे भी वापस लौटना था सो मैं भी उनके साथ चल दिया। उन्होंने कहा कि देहरादून के प्रिंस चैक की ओर से आईएसबीटी जाएगें, मैं फंस गया, इसके बाद उन्होंने किसी भी आटो को मुझे हाथ ही नहीं देने दिया, रात लगभग दस बजे हमने प्रिंस चौक से आईएसबीटी का पैदल सफर तय किया। मैं गाड़ी की बात करता तो वे हाथ में पकड़ी मूंगफली की थैली मेरी ओर बढ़ा देते। बस मूंगफली खाते- खाते सात आठ किमी का सफर उन्होंने मुझसे पैदल ही तय कराया। इसके बाद से मैंने उनके साथ पैदल चलने के प्रस्ताव को किसी न किसी बहाने टाल ही दिया।
एक बार तो उनके साथ के चक्कर में मेरे एक साथी के परिवार में कलह ही हो गया। सोलन में नौणी नामक स्थान पर कृषी एवं बागवानी विश्वविद्यालय है, उसके जन संपर्क अधिकारी थे पीडी भारद्वाज। उनकी तबीयत नासाज होने की जानकारी हमें निर्झर जी के माध्यम से मिली। उन्हें देखने जाना था सो हमने दैनिक भास्कर के उप संपादक यशपाल कपूर को साथ ले सुबह दस बजे से पहले उनके घर पहुंचने की ठानी। निर्झर ने हमें आश्वासन दिया कि पैदल बिल्कुल नहीं जाएगें और जल्दी ही वापस लौट आएगें। कपूर जी की धर्म पत्नी के दांतों में दर्द था सो उन्होंने वापस लौट कर डॉक्टर के पास जाने का कार्यक्रम धर्मपत्नी के साथ तय कर लिया। हम तीनों भारद्वाज जी के घर पहुंचे, उनके साथ कुछ समय बिताया और फिर वापस निकलने लगे कि निर्झर का पैदल चलने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। उन्होंने हमें पहाड़ का रास्ता बताते हुए कहा कि इस रास्ते हम सड़क तक बहुत जल्दी पहुंच जाएंगे। हम उनके झांसे में आ गए। निर्झर के पीछे पीछे चलते हुए हम लगभग आधा घंटे बाद सड़क पर तो पहुंचे, लेकिन वहां बस स्टॉप न होने के कारण सोलन तक का सफर भी पैदल करने की नौबत आ गई। इधर कपूर साहब की पत्नी के फोन पर फोन और उधर निर्झर जी की पैदल यात्रा। कपूर साहब थे भी थोड़े रंगीन तबीयत के आदमी सो अपने ही साथ काम करने वाले सुखदर्शन ठाकुर के घर उनके खिलाफ मजाक मजाक में कुछ ऐसा बोल आए थे कि बेचारे ठाकुर जी की तबीयत बिगड़ गई। तब से सुखदर्शन उनसे बदला लेने की सोचा करते। कपूर साहब की पत्नी को वे दीदी कहा करते सो अचानक उनके घर फोन किया और कपूर साहब की पत्नी ने अपने दांत की पीड़ा से लेकर कपूर साहब के अब तक न आने का किस्सा सुना दिया। फिर क्या था ठाकुर के दिमाग में घंटी बज गई, उन्होंने कपूर साहब की धर्मपत्नी को मनगढंत कहानी सुना कर उनके दिमाग में बिठा दिया कि कपूर साहब अपनी महिला मित्रों के साथ किसी और दिशा में भटकते देखे गए हैं। अब क्या था भाभी, कपूर साहब को जल्दी आने के लिए कहें और हमारी यात्रा खत्म ही न हो। दोपहर को हारे थके घर पहुंचे तो बीमार भाभी ने कपूर साहब की ठीक खबर ली, उनसे यह साबित करते नहीं बना कि वे भारद्वाज जी को देखने हमारे साथ गए थे। सुना है पूरा दिन घर पर तनाव रहा। निर्झर ने यह सुना तो बहुत हंसे।

निर्झर न तो आज के समय के साथ चल सकते हैं न इस काल के लिए बने थे, सही मायने में उम्र के लगभग 51 साल बिता चुका यह शख्स आज के ई-मेल युग में चिठ्ठीपत्री युग का एक्सटेंशन है। जो आधुनिकता को अपनाना ही नहीं चाहता। उससे दूर भागता है। देश का कोई ही प्रदेश होगा जहां उनके पत्र मित्र न हों। कुछ तो ऐसे भी है जो हिंदी नहीं जानते लेकिन मित्रता की भाषा को उन्होंने भी समझा। मेरे नालागढ़ जाने के बाद उनसे मुलाकातों का सिलसिला टूट गया। कई दिनों से उनका मोबाइल फोन भी स्विच आफ था। एक दिन अखबारों में खबर पढ़ कर झटका लगा। लिखा था कि सोलन के रत्न चंद निर्झर नामक एक व्यक्ति ने चिठ्ठी पत्रियों का चलन बंद ही हो जाने के चलते अपना मोबाईल फोन बेच दिया है। वे चाहते है कि लोग चिठ्ठियां लिखने की पुरानी परिपाटी को न छोड़ें और कम से कम उन्हें तो चिठ्ठी ही लिखें। मुंह से वाह और आह दोनों साथ ही निकले थे। कई महीनों बाद हमने मन्नतें करके उनसे दोबारा मोबाईल फोन खरीदवाया था, जिसे उन्होंने शायद अब तक नहीं बेचा... कौन जाने फिर सनक चढ़े और फेंक दें।
सोलन में रहते हुए राहुल सांकृत्यायन जन्मदिवस, मुंशी प्रेमचंद जयंती उनकी ही प्रेरणा से हम जोरदार ढंग से मनाते। पर्चे पढ़ने के लिए साहित्यकार मिल ही जाते, कवियों के लिए तो सोलन की भूमि वैसे भी काफी उर्वरा रही है। निर्झर हमेशा कहते हमारे कवि एक कविता को दस दस सालों से सुनाए जा रहे हैं। इस मामले में मैंने निर्झर में एक इमानदारी देखी, वे यदि नई कविता नहीं लिख सके तो कवि सम्मेलन के मंच पर कविता नहीं सुनाते। माफी मांग लेते। काफी फरमाइशों के बाद वे कभी सुनाते तो अपनी वर्षों पहले लिखी खिंद कविता सुनाते। इस कविता को सुनाते हुए निर्झर भावों में बहने लगते हैं। खिंद माने गुदड़ी...... के ताने बाने को खोलती मां और हर ताने का परिचय देते निर्झर के शब्द, उनकी आँखें छलछला जातीं और सुनने वाले निशब्द पूरी कविता को सुनते। सुना है अब खिंद पर दिल्ली में किसी यूनिवर्सिटी में शोध हो रहा है।
सच्चाई का साथ छोड़ना उन्हें नहीं भाता। सोलन में रहते हमारी मित्रता हिमाचल पुलिस के युवा आईपीएस अधिकारी ज्ञानेश्वर सिंह से हो गई। वे भी निर्झर को बहुत सम्मान देते। हमें पता चला कि 28 नवंबर को निर्झर का जन्मदिन है, मैने ही आयडिया दिया कि इस बार उनका जन्मदिन मनाया जाए। एसपी साहब बोले 27 को रविवार है, समय का सदुपयोग भी हो जाएगा, फिर लोग थोड़े ही पूछेंगे कि जन्मतिथी क्या है। सुखदर्शन, पंडित संतराम जी, कपूर साहब आदि सब राजी हो गए पर निर्झर को कौन मनाए। खैर वे कार्यक्रम में आने पर इस शर्त पर राजी हुए कि कार्यक्रम में केक नहीं कटेगा, वे सब को अपने घर से बना कर लाए गए अरबी के पत्तों के पत्योड़ खिलाएगें और कार्यक्रम में कवि सम्मेलन होगा। एसपी साहब ने पुलिस लाईन के सभागार में कवि गोष्ठी का इंतजाम करा दिया। स्थानीय कवि बुला लिए गए, पुलिसकर्मी भी कवि सम्मेलन सुनने पहुंचे। निर्झर से पहले आने वाले हर कवि ने उन्हें जन्मदिन की मुबारकबाद दी। जब निर्झर की बारी आई तो उन्होंने रहस्य से पर्दा उठाया कि दरअसल उनका जन्मदिन आज यानी 27 को नहीं बल्कि 28 नवंबर को है। यह सुनकर मैं एसपी साहब का मुंह देखूं और वे मेरा। हम समझ नहीं पा रहे थे कि यह बताने की निर्झर को क्या आवश्यकता थी....पर सच शायद उन्हें कचोट रहा था। बाद के कवियों ने उन्हें प्री मेच्योर बच्चा कह कर तंज भी कसे। पर निर्झर सच बता कर खुश थे।

उन्हें पढ़ने का शौक है और लोगों को पढ़ाने में उन्हें असीम आनंद की अनुभूति होती है। अक्सर मेरे पास वे देश के कोने -कोने से नव प्रकाशित पत्रिकाओं को लेकर पहुंच जाते। निर्धारित मूल्य लेकर किताबें मुझे पढ़ने के लिए देते। उन्हें खबर मिलनी चाहिए कि नई पत्रिका प्रकाशित हुई है। वे दस या बीस कापियों का मूल्य डाक से लेखक को भेजेंगे और उन किताबों को एक -एक करके पाठकों तक पहुंचाएंगे।
एसपी साहब के द्वारपाल कैसे सकते हैं बताने की जरूरत नहीं। निर्झर जी का फोन आया तो परेशान थे: बोले पता नहीं ज्ञानेश्वर जी को किताबें मिली भी होंगी या नहीं। मैंने पूछा आप दे कर तो आए हैं। वे बोले... यार गया तो था उनसे मिल कर उन्हें किताबें देने.... पर दरवाजे से पुलिस वाले ने अंदर ही नहीं जाने दिया, डर के मारे उसके पास ही किताबें छोड़ आया। खैर वे किताबें ज्ञानेश्वर सिंह जी तक पहुंची पर उन्हें यह पता नहीं चला कि उन्हें कौन छोड़ गया। जब मैंने बताया तो वे बहुत हंसे। उसके बाद उन्होंने निर्झर जी को बुलाया, स्वयं दरवाजे पर खड़े होकर उनका इंतजार किया और निर्झर से अपने द्वारपाल को विशेष रूप से मिलवाया तथा अगली बार से बिना टोके अंदर भेजने की हिदायत दी।
निर्झर हैं ही ऐसे कि पुलिस वाले उनके भीतर छिपी खासियतों को कैसे पहचाने। बड़ी खिचड़ी दाड़ी, कई बार तो महीनों महीनों शेव नहीं करते। एक बार तो उसी हालत में मेरे घर देहरादून पहुंच गए। अब तो लगता है कुछ सुधार हुआ है। सब धर्मपत्नी का प्रताप है। धर्मपत्नी की बात चली तो बता दें कि निर्झर ठहरे फक्कड़ टाइप, शादी व्याह के सामाजिक बंधनों से कोसों दूर, उम्र बढ़ती जा रही थी शादी की कोई फिक्र नहीं। एक मित्र थे अरूण डोगरा....इन दिनों दैनिक जागरण के बिलासपुर प्रभारी हैं। डोगरा जी और दूसरे मित्रों के समझाने बुझाने पर शादी के लिए राजी हुए। लोक निर्माण विभाग में नई नई नौकरी लगी थी सो अंग्रेजी ट्रिब्यून में वैवाहिक विज्ञापन प्रकाशित कराया गया। लगभग एक महीने बाद अखबार ने सभी पत्र उनके पते पर भेज दिए। लगभग डेढ सौ पत्र रहे होंगे। मित्रों की ज्यूरी बैठी। लंबे सोच विचार के बाद आईजीएमसी शिमला में एक नर्स के प्रस्ताव को पसंद किया गया। दिए गए पते पर निर्झर जी की स्वीकृति भेज दी गई। तकरीबन पंद्रह दिन बाद जवाब आया। पत्र पढ़ कर पूरी ज्यूरी ने माथा पीट लिया। लिखा था... आदरणीय भाई साहब प्रणाम.....आपके आशीर्वाद से मैंने यहीं काम करने वाले एक चिकित्सक से विवाह करने का फैसला किया है। फलां तिथी को विवाह है आप छोटी बहन समझ कर आशीर्वाद देने अवश्य पहुंचें....।

निर्झर जी फिर कुंवारे रह गए। उन्हें अपने कुवांरत्व की इतनी चिंता नहीं थी जितनी अरुण डोगरा सरीखे दोस्तों को थी। अंततः अरुण की पत्नी की बड़ी बहन से निर्झर से विवाह हुआ, और दो जुड़वा बेटों समेत तीन बेटा बेटी हैं। भाभी की शक्ल हूबहू अपनी छोटी बहन से मिलती है। खैर यह पारीवारिक मामला है....निर्झर पारीवारिक होते हुए आज भी बंधनों से नहीं बंधे। यदा-कदा थैला-रेडियो उठा कर निकल पड़ने के लिए मचल उठते हैं। उनके थैले में अखबार और पत्रिकाओं के अलावा एक अदद टार्च और दैनिक आवश्यकताओं का सारा सामान मिल जाएगा।
जम्मू कश्मीर में चुनाव थे, चुनाव ड्यूटी के लिए ऐसे कर्मचारियों की आवश्यकता थी जो ऊर्दू जानते हों। हिमाचल में पांच सात लोग ही ऐसे थे जो इस अनिवार्य शर्त को पूरा कर सकते थे, लेकिन जम्मू-कश्मीर में मौत के मुंह में जाए कौन, सो सबने बहाने बना लिए। एक मात्र आवेदन गया निर्झर का। मैंने पूछा- पहले तो खतरे के बीच आप क्योंकर जाएगें दूसरे ऊर्दू कहां से सीखेंगे। तब उन्होंने राज खोला कि उन्हें ऊर्दू पढ़नी और लिखनी दोनों आती हैं। दूसरे मौत उनको आती है जो डरते हैं मैं तो कश्मीर को समझने के लिए जाना चाहता हूं...वहां के लोगों से मिलूंगा, संस्कृति समझूंगा आदि आदि.... इसके बाद उन्होंने कुछ दिन सरकारी प्रशिक्षण भी लिया, लेकिन दुर्भाग्यवश चुनाव में उनकी आवश्यकता नहीं पड़ी और निर्झर की मन की बात मन में ही रह गई। जो भी हो निर्झर का जन्मदिन अब हर साल मनाया जाता है, उस दिन साहित्यकारों पत्रकारों को भोज दिया जाता है। कवि गोष्ठी होती है साहित्य चर्चा होती है। अरुण इस कार्यक्रम की तीन सालों से व्यवस्था करते हैं। इस बार मैं भी शरीक हुआ था कार्यक्रम में। शिमला से मधुकर भारती जी, द्विजेंद्र द्विज, कृष्णचंद महादेविया और हिमाचल पत्रकार संघ के अध्यक्ष जयकुमार आदि शामिल हुए। मैं तो देरी से पहुंचा पर सबने बताया कि खूब आनंद के साथ मनाया गया निर्झर का जन्मदिन। निर्झर ने अपनी उम्र सबको बिरले अंदाज में बताई; वे बोले: मैं और कादंबनी हम उम्र हैं। कादंबनी का प्रकाशन 1960में शुरू हुआ और इनका जन्म भी उसी वर्ष का है।
जब उनकी नई नई नौकरी लगी तब हिमाचल के मुख्यमंत्री होते थे वीरभद्र सिंह। सिंह कर्मचारियों के दूरस्थ इलाकों में जाने में दिए जाने वाले बहानों से परेशान थे। निर्झर उनके आवास पर पहुंचे तो मुख्यमंत्री ने आने का कारण पूछा। निर्झर ने बता दिया कि स्थानांतरण करवाना चाहते हैं। इस पर वीरभद्र सिंह ने निर्झर को खूब खरी खोटी सुनाई, लेकिन जब प्रार्थनापत्र देखा तो उनकी आखें फटी रह गई। मंडी जिले के मैदानी क्षेत्र का रहने वाला यह लड़का अपना स्थानांतरण हिमाचल के दूरस्थ क्षेत्र पांगी में करवाना चाहता है। ताकि वहां के लोगों व कल्चर को समझ सके। आवेदन पत्र पढ़ कर मुख्यमंत्री ने निर्झर की सबके सामने जमकर सराहना की।
हमारी परंपरा है कि जो लोग हमारे बीच नहीं है हम उनकी स्मृति में आयोजन करते हैं। उन्हें मरणोपरांत सम्मानित करते हैं, लेकिन जीते जी उसे कोई भाव नहीं देते। निर्झर जैसे लोग दो युगों के बीच सेतु की तरह हैं। जो हजारों लाखों में बिरले ही होते हैं। इसलिए उन्हें मान व उनकी भावनाओं को सम्मान देना हमारा दायित्व है। ईश्वर करे उनका एक्सटेशन और एक्सटेंड हो जाए। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उनसे जुड़ कर उनके माध्यम से पिछले युग को सझ सकें। आप भी उनसे बात करके उनसे मित्रता करना चाहे तो यह नंबर नोट कर लें -09459773121.... न मालूम कब निर्झर को सनक चढ़े और वह अपने मि़त्रों को सिर्फ पत्र व्यवहार करने क फरमान सुना दें।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

क्या की जे

किसी को याद न आए तो भला क्या की जे,
किसी की याद सताए तो भला क्या की जे।।
वो बेवफा है बेरुखा है दगाबाज है बहुत,
पर ये दिल उसको ही चाहे तो भला क्या की जे।।
मित्रों बिस्तर की सलवटों को प्रयोग मित्रों ने अब तक बेचैनी को जाहिर करने के लिए किया है, यहां नया उपयोग देखें....
अर्ज किया है.....
अजीब रात है करवटों में कटी जाती है,
सलवटें बिस्तर पर न आए तो भला क्या की जे।
देश के हालात बिगड़ रहे हैं या सुधर रहे हैं यह तो दावे के साथ हमारे नीति निर्धारक भी नहीं कर सकते...
देखें
ढकने के लिए लोग को कपड़ा नहीं नसीब।
विकास दर आकाश में जाए तो भला क्या की जे।
और अंत में
सौ-सौ की दिहाड़ी में सौ दिनों का रोजगार।
सांसद अस्सी हजार पाएं तो भला क्या की जे।।

रविवार, 12 सितंबर 2010

प्रतिशोध

राजनीतिकारों पर और देश के गद्दारों
परसाठ साल किया हुआ शोध बाँट रहा हूँ।
गाँव के चौबारों में और दिल्ली के गलियारों में
आम आदमी का प्रतिशोध बाँट रहा हूँ ।
कुर्सी की आग में जलेंगे सारे एक दिन,
इसीलिये लोगों में विरोध बाँट रहा हूँ
जानता हूँ फ़र्ख न पड़ेगा कोई फिर भी,
हिजड़ों के गाँव में निरोध बाँट रहा हूँ॥

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

नानी एक कहानी कह

नानी एक कहानी कह
सबकी है जब अपनी रातें
नींद नहीं क्यों आनी कह...

कैसी मस्जिद कैसा मंदर
सबके लिए है एक समंदर

फिर क्यों झांसे में आ जाती
अब झांसी की रानी कह...

बोझ जमाने भर का लादे
चश्मे चढ़ते आखों पर
क्यों पन्नों में ही खो गई
बच्चों की शैतानी कह...

फूलों सी रंगत चहेरों की
कितने बरस हो गए देखी थी
फीके चेहरे, रूखी बातें
क्यों बेरंग जवानी कह...

क्यों रोते हैं बच्चे जग कर
रात-रात को नींदों से
तेरी कहानी से गायब हैं
क्यों राजा और रानी कह...