सोमवार, 26 दिसंबर 2011

बिक गए


राजनीति के इस जंगल में
कैसे कैसे नाम बिक गए।
अच्छे खासे दाम ले गए,
कहते हैं बेदाम बिक गए।।

मन था जो वो मौन हो गया
संसद की गलियों में खो गया
मंहगाई के आगे देखो
शास्त्र बचा है अर्थ सो गया।
यह दस जनपथ है बाबू जी
बड़े- बड़े बलवान बिक गए।।


गांधी के अनुयायी हो तुम
देश के कैसे सिपाही हो तुम
सबकी गर्दन काट रहे हो
कितने बड़े कसाई हो तुम
ऊंची थी दुकान तुम्हारी
फीके भी पकवान बिक गए।।


एक बूढ़े को गरियाते हो
आवाज देश की झुठलाते हो
नौटंकी करने वालों को
देश की संसद में लाते हो
तुम तो क्या हो इस धरती पर
गद्दाफी-सद्दाम बिक गए।।


खुद भूखे - नंगे लगते हो
जनता को भूखा कहते हो
जिसके सेवक हो तुम सालों
से उसको धोखा देते हो
मालिक सोया रहा आज तक
घर के सारे धान बिक गए।।


जनता जब उल्टी बहती है
उलट पुलट सब कर देती है
जितना खाया है उगला कर
बाद एनीमा देती है
वक्त है समझ जाओ अच्छा है
फिर कहोगे, हे राम ! बिक गए

3 टिप्‍पणियां:

  1. KHUB LIKHTE HO E KALAM K SIPAAHI,HUM BHI TUMAHAARI RAAH CHAL KUCH LIKHE BANA LO HAME BHI APNA RAHI
    DKG

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  2. bahut sunder baddimag ji, dimag walon ki achhi khabar li hai...........

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  3. प्रियवर
    नमस्कार !
    आशा है सपरिवार स्वस्थ सानंद हैं
    नई पोस्ट बदले हुए बहुत समय हो गया है …
    :)

    शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार

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