मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
खुद ही जाओगे नेताजी या
अन्ना हजारे की मजबूरीवश घोषित की गई जीत के बाद बौखलाए केंद्र सरकार के पहरूए कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद न जन लोकपाल विधेयक को ले कर जो टिप्पणी की हैं। उनसे न सिर्फ उनकी मंशा बल्कि सभी राजनीतिज्ञों की विचारधारा पर ही सवाल खड़े हो गए हैं। जन लोकपाल विधेयक का खाका बनाने के लिए बनाई गयी समिति में सरकार न जिन मंत्रियों को शामिल किया है, ये दोनों भी उनमे से ही हैं... ऐसे में पहला सवाल तो यही उठता है की जिन लोगों का प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक में विश्वाश ही नहीं है वे उसका खाका क्या ख़ाक ईमानदारी से तैयार करवाएंगे....इससे अच्छा होता की सिब्बल और खुर्शीद इस समिति से इस्ताफा दे देते। तब अगर वे कोई टिप्पणी करते तो बात कुछ समझ में आती। वैसे कपिल सिब्बल की टिपण्णी है भी बेतुकी। उन्होंने एक जगह कहा है कि लोकपाल विधेयक का फ़िलहाल कोई औचित्य नहीं है। उनकी माने तो जब तक देश के सभी बच्चों के लिए स्कूलों, गरीबों के लिए चिकित्सालयों और हर हाथ को काम की व्यवस्था नहीं हो जाती इस विधेयक का कोई औचित्य ही नहीं होगा। अब कोई सिब्बल साहेब से पूछे कि यदि आज़ादी के साठ साल बाद भी हमारे नेता हर बच्चे को स्कूल नहीं भेज सके , हर व्यक्ति के लिए चिकित्सालय का और हर हाथ को काम का इंतजाम भीं कर सके तो इसमें गलती किसकी है..आम आदमी कि या फिर सरकारों की वो भी तब जब आज़ादी के बाद से आज तक अधिकांश समय उनकी ही पार्टी न देश पर राज किया।
अपने बयान में उन्होंने भष्टाचार की बानगी भी पेश की कि नेता या अफसर के फोन किये बगैर बच्चे का स्कूल में और मरीज को चिकित्सालय में भरती नही किया जाता। यह कह कर उन्होंने स्वयं सिद्ध कर दिया कि भ्रष्टाचार में नेता और अफसरशाही का सबसे ज्यादा हाथ होता है। सिब्बल साहेब भूल गए कि वे एक प्रजातांत्रिक सरकार के जिम्मेदार मंत्री हैं। उन्होंने अब तक इस अव्यवस्था को दूर करने के लिए क्या किया यह भी उन्होंने नहीं बताया। यह तो वही बात हुई कि हथियार हाथ में लेकर हम सामने वाले की तलवार को कोसने लगें। मंत्री का एक प्रस्तावित विधेयक को लेकर ऐसे बयान देना उनके मानसिक दीवालियेपन की ओर इशारा कारता है। मंत्री ने उस विवादित बयान से न सिर्फ अपने क़ानून की खामियों को साथ ही अपनी ही सरकार के ऊपर पड़ा पर्दा भी उठा फेंका है। उनके बयान से यह भी साबित हो गया है कि दोनों ही मंत्रियों का लोकपाल बिल में कोई विश्वाश नहीं है। यह भी कि केंद्र सरकार ने अन्ना को मिले देश ही नहीं विश्वव्यापी समर्थन से घबराकर उनकी मांग तो मान ली, लेकिन अब सरकार विधेयक को लेकर बेहद असमंजस में है। दक्षिण भारत में विधानसभा चुनाव के परिणामों के खतरे को भांप कर सरकार ने अन्ना के आन्दोलन को जल्दी से जल्दी निपटा तो दिया लेकिन अब लोकपाल विधेयक को लेकर वह गंभीर नहीं है। जो भी हो अन्ना को लेकर देश में आज़ादी के बाद इतना बड़ा सत्याग्रह हुआ है। इसके सूत्रधार अन्ना ही हैं । सरकार को यह बात कचोट रही है। स्मरण हो तो आन्दोलन के शुरू में कांग्रेस के प्रवक्ता का सिंघवी ने अन्ना का एक तरह से मजाक उड़ाते हुए कहा था कि अन्ना के समर्थकों व देशवासियों को उनके स्वास्थ्य का ख्याल करते हुए उनका अनशन तुडवाने लिए दवाब बनाना चाहिये, यह कहते केअन्ना पर पर का सबसे कुशल वकील और वक्ता मानने वाले सिंघवी शायद भूल गए कि उम्र के इसी दौर में महात्मा गाँधी ने न जाने कितने अनशन किये और अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
उन्हीं गाँधी कि रह पर जब अन्ना न एक कदम रखा तो कांग्रेस्सियों के सीने में सांप लोटने लगे. वैसे ये वही कांग्रेसी हैं जो मौके बेमौके लोगों से गाँधी जी के बताये रस्ते पर चलने कि अपील करते रहते हैं.हैं न नेताओं का दो मुहापन. लगता नहीं कि नेता अपने हाथ से इतनी आसानी से बाज़ी अपने हाथ से जाने देंगे. वे जेल कि सलाखों के पीछे जाने से पहले अपने बचाव के हर रास्ते से भागने कि कोशिशें करेंगे. वैसे काम से काम कपिल सिब्बल और सलमान खुर्शीद को तो अब इस कमेटी में बने रहने का कोई अधिकार ही नहीं रह गया है..वे स्वयं नहीं गए और ऐसे ही बोलते रहे तो जनता उन्हें स्वयं बाहर कर देगी.
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कहने और करने में बहुत अंतर है. लोकपाल बिल पर लगभग ३४ मसले पर समझौता हो चुका है. सिर्फ ६ मसलों पर बहस होनी है. मिलजुलकर ही समझौते को सिरे पर चढ़ाया जा सकता है.इसमें संविधान का भी ख्याल रखना होगा.सरकार सोच-समझ कर कदम आगे बढ़ा रही है क्योंकि उसे पता है कि बाद में विपक्ष होहल्ला ज़रूर करेंगे और वे इसी ताक में बैठे हुए हैं.
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