सोमवार, 23 अगस्त 2010

तुम आओगे न... गिर्दा



65 साल की उम्र कोई ज्यादा नहीं होती और तुम इतनी ही लिखा लाए। पर जितना भी जिए शानदार जिए। तुम गिर्दा नहीं एक कहानी थे... एक अनवरत कहानी जिसका कोई अंत नहीं... बस आरंभ था। तुम्हे क्या लगता है कि तुमने जिंदगी के इन 65 सालों में अपनी जिंदगी जी। नहीं तुम एक युग जी गए... गिर्दा....। वो युग जो अब पहाड़ पर फिर लौट कर नहीं आएगा। क्या आदमी थे रे तुम... ठेठ पहाड़ी जीवन... वहीं ठसक ...वहीं कसक ... डटे रहने की रणभूमि में.... पहाड़ की तरह। मां पिता ने गिरीश नाम दिया... तुम्हे शायद जंचा नहीं सो गिर्दा हो गए। पूरी दुनिया के लिए ...गिर्दा... यानी गिरीश दा...। दादा यानी बड़ा भाई जो छोटों को हर गलती पर प्यार भरी डांट पिलाता है। पुचकारता है और फिर गलती न करने की नसीहत देता है।
सारा पानी चूस रहे हो , नदी संमदर लूट रहे हो
गंगा यमुना की छाती पर कन्कड़ पत्थर कूट रहे हो।।
महल चौबारे बह जाएगें, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूँद बूंद को तरसोगे जब
बोल व्यापारी तब क्या होगा।नगद उधारी तब क्या होगा।।
गिर्दा.... नाम के अलावा तुमने और क्या लिया दुनिया से और दिया क्या- क्या... शायद तुमने इस पर गौर ही नहीं किया। तुम तो पहाड़ थे। तुम्हें क्या पता हीरे क्या हैं और जवाहरात क्या। तुम तो बस उगले जा रहे थे। बेजान शब्दों को जान देते हुए ...शब्द ...शब्द...अहा हीरे ...जवाहरात।तुम्हारा जाना एक चोट दे गया उन एक करोड़ उत्तराखण्डियों को जो तुम्हारे गीत गा-गा कर अलग राज्य के नागरिक बन गए। यह अजीब जज्बा तुमने ही तो भरा था उनके भीतर गाते गाते लडऩे का ... अजीब है न... पर यह किया तुमने ही...।मेरे जैसे कितने ही हैं जो तुम्हें साक्षात न देख सके लेकिन तुम्हें तुम्हारे गीतों, जन गीतों से जानते हैं। उन सबमें तुम जिंदा हो गिर्दा.... हमें लगता है कि तुम मिटे नहीं तुम चले गए हो कुछ समय के लिए और फिर लौटोगे ... गाते हुए ...
चलो रे नदी तट पार चलो रे...बहता पानी, चलता जीवन, थमा के हाहाकार चलो रे...
तुम गए नहीं गिर्दा यहीं ...कहीं हो... बस ओझल से हो... जब भी परेशान होंगे... तुम्हारे जन गीतों से ही पुकारेगे तुम्हें ... तुम आओगे न...क्योकि अभी लडऩी हैं हमने लंबी लड़ाई...तुम दोगे न साथ पहले की तरह... इस बार भी...

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